भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साँचा:KKPoemOfTheWeek" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे | हैं उलझ गए जीने के सारे धागे | ||
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ | यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ | ||
− | कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी | + | कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गायें |
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी | यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी | ||
− | + | ज़्यादा-से-ज़्यादा सुख सुविधा आज़ादी | |
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में | तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में | ||
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में | यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में |
22:57, 20 जून 2014 का अवतरण
शहर में रात
रचनाकार: केदारनाथ सिंह
बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे हैं उलझ गए जीने के सारे धागे यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गायें
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी ज़्यादा-से-ज़्यादा सुख सुविधा आज़ादी तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें