भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"समोसे / वीरेन डंगवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच | बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच | ||
− | मेज पर | + | मेज पर मक्खियाँ |
चाय के जूठे गिलास | चाय के जूठे गिलास | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 29: | ||
दाद पाने की इच्छा से पैदा | दाद पाने की इच्छा से पैदा | ||
− | मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ में | + | मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ में होंठ |
कानों तलक | कानों तलक |
17:53, 22 दिसम्बर 2007 का अवतरण
हलवाई की दुकान में घुसते ही दीखे
कढाई में सननानाते समोसे
बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच
मेज पर मक्खियाँ
चाय के जूठे गिलास
बड़े झन्ने से लचक के साथ
समोसे समेटता कारीगर था
दो बार निथारे उसने झन्न -फन्न
यह दरअसल उसकी कलाकार इतराहट थी
तमतमाये समोसों के सौन्दर्य पर
दाद पाने की इच्छा से पैदा
मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ में होंठ
कानों तलक
कौन होगा अभागा इस क्षण
जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी
समोसा खाने की इच्छा ।