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11:34, 25 मई 2008 के समय का अवतरण
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कई बार
सरकलम किए पेड़ की तरह
हो जाता हूँ बौना
जिसके ऊपर से गुज़रता है
बिजली का तार ।
छांग दिया जाता हूँ बेमौसम
जब अकस्मात ही
कोई पूछ लेता है मेरा धर्म ।
कई बार
पानी से भी पतला
हो जाता है माटी का यह पुतला ।
शब्द–
जुबान का छोड़ जाते हैं साथ
जैसे पतझड़ में पेड़ों से पत्ते ।
सिर पर से गुज़र जाता है पानी
धरती देती नहीं जगह
जब अचानक ही
कोई पूछ लेता है मेरी जात ।
कई बार
मन के आकाश पर
चढ़ आते हैं
घोर उदासियों के बादल
जब महानगरीय हवा में
पंख समेट कर बैठ जाता है
उड़ाने भरता, कल्लोल करता
चुग्गा चुगने आया कोई परिंदा
पूछे जब कोई सहसा
उसका मूल प्रदेश
पहले गाँव, फिर मुहल्ला ।
कई बार क्या, अक्सर ही
बिंध जाता है उड़ता हुआ परिंदा
कभी धर्म, कभी जात, कभी मुहल्ले से
तो कभी
अवर्ण के बाण से ।