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शहर में रात</div>
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मौसियाँ</div>
  
 
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रचनाकार: [[केदारनाथ सिंह]]
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रचनाकार: [[अनामिका]]
 
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बिजली चमकी, पानी गिरने का डर है
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वे बारिश में धूप की तरह आती हैं -–
वे क्यों भागे जाते हैं जिनके घर है
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थोड़े समय के लिए और अचानक
वे क्यों चुप हैं जिनको आती है भाषा
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हाथ के बुने स्वेटर, इन्द्रधनुष, तिल के लड्डू
वह क्या है जो दिखता है धुँआ-धुआँ-सा
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और सधोर की साड़ी लेकर
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वे आती हैं झूला झुलाने
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पहली मितली की ख़बर पाकर
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और गर्भ सहलाकर
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लेती हैं अन्तरिम रपट
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गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की ।
  
वह क्या है हरा-हरा-सा जिसके आगे
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झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से
हैं उलझ गए जीने के सारे धागे
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मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
यह शहर कि जिसमें रहती है इच्छाएँ
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कर देती हैं चोटी-पाटी
कुत्ते भुनगे आदमी गिलहरी गायें
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और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
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किस धुन में रहती है
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कि बालों की गाँठें भी तुझसे
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ठीक से निकलती नहीं ।
  
यह शहर कि जिसकी ज़िद है सीधी-सादी
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बालों के बहाने
ज़्यादा-से-ज़्यादा सुख सुविधा आज़ादी
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वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
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करती हैं परिहास, सुनाती हैं क़िस्से
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
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और फिर हँसती-हँसाती
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दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं -
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चटनी-अचार-मूंग-बड़ियाँ और बेस्वाद सम्बन्ध
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चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे -
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सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर
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ध्यान भी नहीं जाता औरों का ।
  
साथियो, रात आई, अब मैं जाता हूँ
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आँखों के नीचे धीरे-धीरे
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
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जिसके पसर जाते हैं साए
जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
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और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप -–
किस तरह रात-भर बजती हैं ज़ंजीरें
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ख़ून के आँसू-से
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चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
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काले-कत्थई चकत्तों का
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मौसियों के वैद्यक में
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एक ही इलाज है -
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हँसी और कालीपूजा
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और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी ।
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बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
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लेती गई खेत से कोड़कर अपने
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जीवन की कुछ ज़रूरी चीज़ें -
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जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपन्थी,
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अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की ।
 
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14:06, 14 जुलाई 2014 का अवतरण

मौसियाँ

रचनाकार: अनामिका

Kk-poem-border-1.png

वे बारिश में धूप की तरह आती हैं -– थोड़े समय के लिए और अचानक हाथ के बुने स्वेटर, इन्द्रधनुष, तिल के लड्डू और सधोर की साड़ी लेकर वे आती हैं झूला झुलाने पहली मितली की ख़बर पाकर और गर्भ सहलाकर लेती हैं अन्तरिम रपट गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की ।

झाड़ती हैं जाले, संभालती हैं बक्से मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल कर देती हैं चोटी-पाटी और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू किस धुन में रहती है कि बालों की गाँठें भी तुझसे ठीक से निकलती नहीं ।

बालों के बहाने वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की करती हैं परिहास, सुनाती हैं क़िस्से और फिर हँसती-हँसाती दबी-सधी आवाज़ में बताती जाती हैं -– चटनी-अचार-मूंग-बड़ियाँ और बेस्वाद सम्बन्ध चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे -– सारी उन तकलीफ़ों के जिन पर ध्यान भी नहीं जाता औरों का ।

आँखों के नीचे धीरे-धीरे जिसके पसर जाते हैं साए और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप -– ख़ून के आँसू-से चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन काले-कत्थई चकत्तों का मौसियों के वैद्यक में एक ही इलाज है -– हँसी और कालीपूजा और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी ।

बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी लेती गई खेत से कोड़कर अपने जीवन की कुछ ज़रूरी चीज़ें -– जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपन्थी, अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की ।