"नख-शिख / मदन वात्स्यायन" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन वात्स्यायन |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 33: | पंक्ति 33: | ||
बेगहनों के तेरे गोरे अंग है और | बेगहनों के तेरे गोरे अंग है और | ||
− | बेलबूटों की तेरी श्वेत साड़ी | + | बे-बेलबूटों की तेरी श्वेत साड़ी |
चारों ओर उजले बादल हैं | चारों ओर उजले बादल हैं | ||
और ग्लावा चमक रही है | और ग्लावा चमक रही है | ||
</poem> | </poem> |
00:34, 30 सितम्बर 2014 के समय का अवतरण
आकाशगंगा में न बहते द्वीप होत हैं,
न उषा से पहली किरण में कोई रंग
प्रिये दोनो ओर तेरे काले बालों के
बीच में तेरी माँग है ।
रूप सागर के तीर पर मेरी कल्पना ने सुना प्रकृतिश्री
कह रही थी---
रूपवानों मैं नारी हूँ
नारी के अंगों में नाक
नाकों में सुश्री प्र की नासिका
चाँद में है
ठण्डी रोशनी
पुतलियों में तेरी
अन्धकार चमाचम
उसके पत्ते सारे ज़िन्दगी लाल किसलय रहते हैं
जिनकी कोरों में खिलती हैं बारहों मास बेलियाँ---
प्याली अलका के नाजुक वसन्त के
या तेरी हँसी के ।
बेली की कौड़ियों जैसे तेरे नन्हें नन्हें हाथ
जो मेरी अंजलि में बसते थे
माँ के डैनों तले
चूजों जैसे ।
बेगहनों के तेरे गोरे अंग है और
बे-बेलबूटों की तेरी श्वेत साड़ी
चारों ओर उजले बादल हैं
और ग्लावा चमक रही है