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"गो-चारण / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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कैसेहुँ आजु जसोदा छाँड़्यौ, काल्हि न आवन पैहौं ।<br>
 
कैसेहुँ आजु जसोदा छाँड़्यौ, काल्हि न आवन पैहौं ।<br>
 
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद-दुहाई ।<br>
 
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद-दुहाई ।<br>
सूर स्याम बिनती करि बल सों, सखनि समेत सुनाई ॥2॥
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सूर स्याम बिनती करि बल सों, सखनि समेत सुनाई ॥2॥<br><br>
  
  
बिहारी लाल, आवहु, आई छाक ।
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बिहारी लाल, आवहु, आई छाक ।<br>
भई अबार, गाइ बहुरावहु, उलटावहु दै हाँक ।
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भई अबार, गाइ बहुरावहु, उलटावहु दै हाँक ।<br>
अर्जुन, भोज अरु सुबल, सुदामा, मधुमंगल इक ताक ।
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अर्जुन, भोज अरु सुबल, सुदामा, मधुमंगल इक ताक ।<br>
मिलि बैठ सन जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक ।
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मिलि बैठ सन जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक ।<br>
अपनी पत्रावलि सब देखत, जहँ-तहँ फेनि पिराक ।
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अपनी पत्रावलि सब देखत, जहँ-तहँ फेनि पिराक ।<br>
सूरदास प्रभु खात ग्वाल सँग, ब्रह्मलोक यह धाक ॥5॥
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सूरदास प्रभु खात ग्वाल सँग, ब्रह्मलोक यह धाक ॥3॥<br><br>
  
  
ब्रज मैं को उपज्यौ यह भैया ।
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ब्रज मैं को उपज्यौ यह भैया ।<br>
संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अगमैया ।
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संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अगमैया ।<br>
जब तैं ब्रज अवतार धर्‌यौ, इन, कोउ नहिं घात करैया ।
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जब तैं ब्रज अवतार धर्‌यौ, इन, कोउ नहिं घात करैया ।<br>
तृनावर्त पूतना पछारी, तब अति रहे नन्हैया ।
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तृनावर्त पूतना पछारी, तब अति रहे नन्हैया ।<br>
कितिक बात यह बका विदार्‌यौ, धनि जसुमति जिन जैया
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कितिक बात यह बका विदार्‌यौ, धनि जसुमति जिन जैया<br>
सूरदास प्रभु की यह लीला, हम कत जिय पछितैया ॥6॥
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सूरदास प्रभु की यह लीला, हम कत जिय पछितैया ॥4॥<br><br>
  
  
आजु जसोदा जाइ कन्हैया महा दुष्ट इक माँर्‌यौ ॥
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आजु जसोदा जाइ कन्हैया महा दुष्ट इक माँर्‌यौ ॥<br>
पन्नग-रूप मिले सिसु गो-सुत इहिं सब साथ उबार्‌यौ ।
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पन्नग-रूप मिले सिसु गो-सुत इहिं सब साथ उबार्‌यौ ।<br>
गिरि -कंदरा समान भयानक जब अघ बदन पसार्‌यौ ।
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गिरि -कंदरा समान भयानक जब अघ बदन पसार्‌यौ ।<br>
निडर गोपाल पैठि मुख भीतर, खंड-खंड करि डार्‌यौ ।
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निडर गोपाल पैठि मुख भीतर, खंड-खंड करि डार्‌यौ ।<br>
याकैं बल हम बदत न काहुहिं, सकल भूमि तृन चार्‌यौ ।
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याकैं बल हम बदत न काहुहिं, सकल भूमि तृन चार्‌यौ ।<br>
जीते सबै असुर हम आगैं, हरि कबहुँ नहिं हार्‌यौ ।
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जीते सबै असुर हम आगैं, हरि कबहुँ नहिं हार्‌यौ ।<br>
हरषि गए सब कहनि महरि सौं अबहिं अघासुर मार्‌यौ ।
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हरषि गए सब कहनि महरि सौं अबहिं अघासुर मार्‌यौ ।<br>
सूरदास प्रभु की यह लीला ब्रज कौ काज सँवार्‌यौ ॥7॥
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सूरदास प्रभु की यह लीला ब्रज कौ काज सँवार्‌यौ ॥5॥<br><br>
  
  
ब्रह्मा बालक-बच्छ हरे ।
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ब्रह्मा बालक-बच्छ हरे ।<br>
आदि अंत प्रभु अंतरजामी, मनसा तैं जु करे ।
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आदि अंत प्रभु अंतरजामी, मनसा तैं जु करे ।<br>
सोइ रूप वै बालक गौ-सुत, गोकुल जाइ भरे ।
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सोइ रूप वै बालक गौ-सुत, गोकुल जाइ भरे ।<br>
एक बरष निसि बासर रहि सँग, कहु न जानि परे ।
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एक बरष निसि बासर रहि सँग, कहु न जानि परे ।<br>
त्रास भयौ अपराध आपु लखि, अस्तुति करत सरे ।
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त्रास भयौ अपराध आपु लखि, अस्तुति करत सरे ।<br>
सूरदास स्वामी मनमोहन, तामै मन न धरे ॥8॥
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सूरदास स्वामी मनमोहन, तामै मन न धरे ॥6॥<br><br>
  
  
आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री ।
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आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री ।<br>
खेलत रह्यौ घोष कैं बाहर, कोउ आयौ सिसु रूप रच्यौ री ।
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खेलत रह्यौ घोष कैं बाहर, कोउ आयौ सिसु रूप रच्यौ री ।<br>
मिलि गयौ आइ सखा की नाईं, लै चढ़ाइ हरि कंध सच्यौ री ।  
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मिलि गयौ आइ सखा की नाईं, लै चढ़ाइ हरि कंध सच्यौ री । <br>
गगन उड़ाइ गयौ लै स्यामहि, आनि धरनि पर आप दच्यौ री ।
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गगन उड़ाइ गयौ लै स्यामहि, आनि धरनि पर आप दच्यौ री ।<br>
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धर्म सहाइ होत है जहँ-जहँ स्रम करी पूरब पुन्य पच्यौ री ।<br>
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सूर स्याम अब कैं बचि आए, ब्रज-घर-घर सुख-सिंधु मच्यौ री ॥7॥<br><br>
  
धर्म सहाइ होत है जहँ-जहँ स्रम करी पूरब पुन्य पच्यौ री ।
 
सूर स्याम अब कैं बचि आए, ब्रज-घर-घर सुख-सिंधु मच्यौ री ॥9॥
 
  
  
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अब कैं राखि लेहु गोपाल ।<br>
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दसहुँ दिसा दुसह दावागिनि उपजी है इहिं काल ।<br>
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पटकत बाँस, काँस कुल चटकत, लटकत ताल तमाल ।<br>
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उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ।<br>
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घूम धूँधि बाढ़ी घर अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।<br>
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हरिन,बराह, मोर, चातक, पिक जरत जीव बेहाल ॥<br>
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जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।<br>
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सूर अगिनि सब बदन समानी ,अभय किये ब्रज-बाल ॥8॥<br><br>
  
अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
 
दसहुँ दिसा दुसह दावागिनि उपजी है इहिं काल ।
 
पटकत बाँस, काँस कुल चटकत, लटकत ताल तमाल ।
 
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ।
 
  
घूम धूँधि बाढ़ी घर अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
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बन तैं आवत धेनु चराए ।<br>
हरिन,बराह, मोर, चातक, पिक जरत जीव बेहाल ॥
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संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए ।<br>
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
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बरह मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।<br>
सूर अगिनि सब बदन समानी ,अभय किये ब्रज-बाल ॥10॥
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बिलसत सुधा जलज-आनन पर, उड़त न जात उड़ाए ।<br>
बन तैं आवत धेनु चराए ।
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बिधि बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ।<br>
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए ।
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एक बरन बपु नहिं बड़ छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।<br>
बरह मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।
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सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥9॥<br><br>
बिलसत सुधा जलज-आनन पर, उड़त न जात उड़ाए ।
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बिधि बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ।
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एक बरन बपु नहिं बड़ छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।
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सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥11॥
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मैया बहुत बुरो बलदाऊ ।
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मैया बहुत बुरो बलदाऊ ।<br>
कहन लग्यौ मन बड़ो तमासी, सब मोढ़ा मिलि आऊ ।
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कहन लग्यौ मन बड़ो तमासी, सब मोढ़ा मिलि आऊ ।<br>
मोहुँ कौं चुचकार गयो लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।
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मोहुँ कौं चुचकार गयो लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।<br>
भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तै, काटि खाइ रे हाऊ ।
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भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तै, काटि खाइ रे हाऊ ।<br>
हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।
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हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।<br>
थरसि गयौं नहिं भागि सकौं, वै भागे जात अगाऊ ।
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थरसि गयौं नहिं भागि सकौं, वै भागे जात अगाऊ ।<br>
मोसौं कहत मोल कौ लीनो, आपु कहावत साऊ ।
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मोसौं कहत मोल कौ लीनो, आपु कहावत साऊ ।<br>
सूरदास बल बड़ौ चबाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥12॥
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सूरदास बल बड़ौ चबाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥10॥<br><br>
  
  
मैया हौं न चरैहौं गाइ ।
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मैया हौं न चरैहौं गाइ ।<br>
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ।
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सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ।<br>
जौ न पत्याहि पूछि बलदाऊहिं, अपनी सौंह दिवाइ ।
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जौ न पत्याहि पूछि बलदाऊहिं, अपनी सौंह दिवाइ ।<br>
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ।
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यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ।<br>
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
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मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।<br>
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥13॥
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सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥11॥<br><br>
  
धनि यह वृंदावन की रेनु ।
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धनि यह वृंदावन की रेनु ।<br>
नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु ।
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नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु ।<br>
मन-मोहन कौ ध्यान धरै जिय, अति सुख पावत चैन ।
+
मन-मोहन कौ ध्यान धरै जिय, अति सुख पावत चैन ।<br>
चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु ।
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चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु ।<br>
इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिन कै ऐनु ।
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इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिन कै ऐनु ।<br>
सूरदास ह्याँ की सरवरि नहि, कल्पवृच्छ सुर-धैनु ॥14॥
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सूरदास ह्याँ की सरवरि नहि, कल्पवृच्छ सुर-धैनु ॥12॥<br><br>
सोवत नींद आइ गई स्यामहिं ।
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महरि उठी पौढ़ाइ दुहुँनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।
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बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहिं ।
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गाढ़ै बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन बलरामहिं ।
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सिव सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि जामहिं ।
+
सूरदास-प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥15॥
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देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
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सोवत नींद आइ गई स्यामहिं <br>
भूखे भए आजु बन-भीतर, यह कहि कहि मुख जोवत
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महरि उठी पौढ़ाइ दुहुँनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं <br>
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोउ बीर
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बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहिं <br>
बार-बार तनु पोंछत कर सों , अतिहिं प्रेम की पीर
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गाढ़ै बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन बलरामहिं <br>
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम
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सिव सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि जामहिं <br>
सूरदास प्रभु कै ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥16॥
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सूरदास-प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥13॥<br><br>
  
  
जागि उठे तब कुँवर कन्हाई
+
देखत नंद कान्ह अति सोवत <br>
मैया कहाँ गई मो ढिग तै, संग सोवति बल भाई
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भूखे भए आजु बन-भीतर, यह कहि कहि मुख जोवत <br>
जागे नंद, जसोदा जागी, बोलि लिए हरि पास
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कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोउ बीर <br>
सोवत झझकि उठे काहे तै; दीपक कियौ प्रकास
+
बार-बार तनु पोंछत कर सों , अतिहिं प्रेम की पीर <br>
सपनैं कूदि पर्‌यौ जमुना दह, काहूँ दियो गिराइ
+
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम <br>
सूर स्याम सौं कहति जसोदा, जनि हो लाल डराइ ॥17॥
+
सूरदास प्रभु कै ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥14॥<br><br>
  
  
मैं बरज्यौ जमुना-तट जात ।
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जागि उठे तब कुँवर कन्हाई ।<br>
सुधि रहि गई न्हात की तेरै, जनि डरपौ मेरे तात ।
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मैया कहाँ गई मो ढिग तै, संग सोवति बल भाई ।<br>
नंद उठाइ लियौ कोरा करि, अपने संग पौढ़ाइ ।  
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जागे नंद, जसोदा जागी, बोलि लिए हरि पास ।<br>
वृंदावन मैं फिरत जहाँ तहँ, किहिं कारन तू जाइ ।
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सोवत झझकि उठे काहे तै; दीपक कियौ प्रकास ।<br>
अब जनि जैहौ गाइ चरावन, कहँ को रहति बलाइ ।
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सपनैं कूदि पर्‌यौ जमुना दह, काहूँ दियो गिराइ ।<br>
सूर स्याम दंपति बिच सोए, नींद गई तब आइ ॥18॥
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सूर स्याम सौं कहति जसोदा, जनि हो लाल डराइ ॥15॥<br><br>
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मैं बरज्यौ जमुना-तट जात ।<br>
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सुधि रहि गई न्हात की तेरै, जनि डरपौ मेरे तात ।<br>
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नंद उठाइ लियौ कोरा करि, अपने संग पौढ़ाइ । <br>
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वृंदावन मैं फिरत जहाँ तहँ, किहिं कारन तू जाइ ।<br>
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अब जनि जैहौ गाइ चरावन, कहँ को रहति बलाइ ।<br>
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सूर स्याम दंपति बिच सोए, नींद गई तब आइ ॥16॥

03:33, 3 जनवरी 2008 के समय का अवतरण

आजु मैं गाइ चरावन जैहौं ।
बृंदाबन के भाँति भाँति फल अपने कर मैं खैहौं ।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भाँति ।
तनक तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैं है अति राति ।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं साँझ ।
तुम्हरौ कमल बदन कुम्हिलैहै, रेंगत घामहिं माँझ ।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक ।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत , पर्‌यौ आपनो टेक ॥1॥


बृंदावन देख्यौ नँम-नंदन, अतिहिं परम सुख पायौ ।
जहँ-जहँ गाइ चरति ग्वालनि सँग, तहँ-तहँ आपुन धायौ ।
बलदाऊ मोकौं जनि छाँड़ौ संग तुम्हारैं ऐहौं ।
कैसेहुँ आजु जसोदा छाँड़्यौ, काल्हि न आवन पैहौं ।
सोवत मोकौं टेरि लेहुगे, बाबा नंद-दुहाई ।
सूर स्याम बिनती करि बल सों, सखनि समेत सुनाई ॥2॥


बिहारी लाल, आवहु, आई छाक ।
भई अबार, गाइ बहुरावहु, उलटावहु दै हाँक ।
अर्जुन, भोज अरु सुबल, सुदामा, मधुमंगल इक ताक ।
मिलि बैठ सन जेवन लागे, बहुत बने कहि पाक ।
अपनी पत्रावलि सब देखत, जहँ-तहँ फेनि पिराक ।
सूरदास प्रभु खात ग्वाल सँग, ब्रह्मलोक यह धाक ॥3॥


ब्रज मैं को उपज्यौ यह भैया ।
संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अगमैया ।
जब तैं ब्रज अवतार धर्‌यौ, इन, कोउ नहिं घात करैया ।
तृनावर्त पूतना पछारी, तब अति रहे नन्हैया ।
कितिक बात यह बका विदार्‌यौ, धनि जसुमति जिन जैया
सूरदास प्रभु की यह लीला, हम कत जिय पछितैया ॥4॥


आजु जसोदा जाइ कन्हैया महा दुष्ट इक माँर्‌यौ ॥
पन्नग-रूप मिले सिसु गो-सुत इहिं सब साथ उबार्‌यौ ।
गिरि -कंदरा समान भयानक जब अघ बदन पसार्‌यौ ।
निडर गोपाल पैठि मुख भीतर, खंड-खंड करि डार्‌यौ ।
याकैं बल हम बदत न काहुहिं, सकल भूमि तृन चार्‌यौ ।
जीते सबै असुर हम आगैं, हरि कबहुँ नहिं हार्‌यौ ।
हरषि गए सब कहनि महरि सौं अबहिं अघासुर मार्‌यौ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला ब्रज कौ काज सँवार्‌यौ ॥5॥


ब्रह्मा बालक-बच्छ हरे ।
आदि अंत प्रभु अंतरजामी, मनसा तैं जु करे ।
सोइ रूप वै बालक गौ-सुत, गोकुल जाइ भरे ।
एक बरष निसि बासर रहि सँग, कहु न जानि परे ।
त्रास भयौ अपराध आपु लखि, अस्तुति करत सरे ।
सूरदास स्वामी मनमोहन, तामै मन न धरे ॥6॥


आजु कन्हैया बहुत बच्यौ री ।
खेलत रह्यौ घोष कैं बाहर, कोउ आयौ सिसु रूप रच्यौ री ।
मिलि गयौ आइ सखा की नाईं, लै चढ़ाइ हरि कंध सच्यौ री ।
गगन उड़ाइ गयौ लै स्यामहि, आनि धरनि पर आप दच्यौ री ।
धर्म सहाइ होत है जहँ-जहँ स्रम करी पूरब पुन्य पच्यौ री ।
सूर स्याम अब कैं बचि आए, ब्रज-घर-घर सुख-सिंधु मच्यौ री ॥7॥


अब कैं राखि लेहु गोपाल ।
दसहुँ दिसा दुसह दावागिनि उपजी है इहिं काल ।
पटकत बाँस, काँस कुल चटकत, लटकत ताल तमाल ।
उचटत अति अंगार, फुटत फर, झपटत लपट कराल ।
घूम धूँधि बाढ़ी घर अंबर, चमकत बिच-बिच ज्वाल ।
हरिन,बराह, मोर, चातक, पिक जरत जीव बेहाल ॥
जनि जिय डरहु, नैन मूँदहु सब, हँसि बोले नँदलाल ।
सूर अगिनि सब बदन समानी ,अभय किये ब्रज-बाल ॥8॥


बन तैं आवत धेनु चराए ।
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए ।
बरह मुकुट कैं निकट लसति लट, मधुप मनौ रुचि पाए ।
बिलसत सुधा जलज-आनन पर, उड़त न जात उड़ाए ।
बिधि बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए ।
एक बरन बपु नहिं बड़ छोटे, ग्वाल बने इक धाए ।
सूरदास बलि लीला प्रभु की, जीवत जन जस गाए ॥9॥


मैया बहुत बुरो बलदाऊ ।
कहन लग्यौ मन बड़ो तमासी, सब मोढ़ा मिलि आऊ ।
मोहुँ कौं चुचकार गयो लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।
भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तै, काटि खाइ रे हाऊ ।
हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।
थरसि गयौं नहिं भागि सकौं, वै भागे जात अगाऊ ।
मोसौं कहत मोल कौ लीनो, आपु कहावत साऊ ।
सूरदास बल बड़ौ चबाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥10॥


मैया हौं न चरैहौं गाइ ।
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ।
जौ न पत्याहि पूछि बलदाऊहिं, अपनी सौंह दिवाइ ।
यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ।
मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥11॥

धनि यह वृंदावन की रेनु ।
नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु ।
मन-मोहन कौ ध्यान धरै जिय, अति सुख पावत चैन ।
चलत कहाँ मन और पुरी तन, जहँ कछु लैन न दैनु ।
इहाँ रहहु जहँ जूठनि पावहु, ब्रजवासिन कै ऐनु ।
सूरदास ह्याँ की सरवरि नहि, कल्पवृच्छ सुर-धैनु ॥12॥


सोवत नींद आइ गई स्यामहिं ।
महरि उठी पौढ़ाइ दुहुँनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।
बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहिं ।
गाढ़ै बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन बलरामहिं ।
सिव सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि जामहिं ।
सूरदास-प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥13॥


देखत नंद कान्ह अति सोवत ।
भूखे भए आजु बन-भीतर, यह कहि कहि मुख जोवत ।
कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोउ बीर ।
बार-बार तनु पोंछत कर सों , अतिहिं प्रेम की पीर ।
सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।
सूरदास प्रभु कै ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥14॥


जागि उठे तब कुँवर कन्हाई ।
मैया कहाँ गई मो ढिग तै, संग सोवति बल भाई ।
जागे नंद, जसोदा जागी, बोलि लिए हरि पास ।
सोवत झझकि उठे काहे तै; दीपक कियौ प्रकास ।
सपनैं कूदि पर्‌यौ जमुना दह, काहूँ दियो गिराइ ।
सूर स्याम सौं कहति जसोदा, जनि हो लाल डराइ ॥15॥


मैं बरज्यौ जमुना-तट जात ।
सुधि रहि गई न्हात की तेरै, जनि डरपौ मेरे तात ।
नंद उठाइ लियौ कोरा करि, अपने संग पौढ़ाइ ।
वृंदावन मैं फिरत जहाँ तहँ, किहिं कारन तू जाइ ।
अब जनि जैहौ गाइ चरावन, कहँ को रहति बलाइ ।
सूर स्याम दंपति बिच सोए, नींद गई तब आइ ॥16॥