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"उस पार / रियाज़ लतीफ़" के अवतरणों में अंतर

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अजनबी दोस्त, बहुत देर में रोया है तू!
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चले आइए
अपनी आवाज़ के सन्नाटे में बैठे बैठे
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ज़बानों की सरहद के उस पार
और आँखों से उभर आई है सय्याल-ए-फ़ुगाँ
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जहाँ बस ख़मोशी का दरिया
अपनी मजबूरियाँ लाचारियाँ बिखराती हुई
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मचलता है अपने में तन्हा
रेग-ए-हस्ती के निज़ामात से झुँझलाती हुई
+
ख़ुद अपने अदम ही में ज़िंदा
  
ऐ उदासी की फ़ज़ाओं के परिंदे ये बता
+
ज़बानों की सरहद के उस पार
अपने अन्फ़ास के तारीक बयाबानों में
+
किसी की भी आमद नहीं है
और तू क्या है ज़मानों की सियाही के सिवा,
+
बस इक जाल पैहम हदों का
और तू क्या है सराबों की गवाही के सिवा,
+
मगर कोई सरहद नहीं है
रात में सर्द सितारों की जमाही के सिवा,
+
 
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तिरे चेहरे की ज़मीं पर जो नमी है अब भी
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दिल की सब बस्तियाँ उस में ही ठिठुर जाती हैं,
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अपने सहमे से किनारों पे थपेड़े खा कर
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अब भी दुनिया के सिसकने की सदा आती है,
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अजनबी दोस्त, ऐ मानूस मुक़द्दर के मकीं
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अपनी आवाज़ के सन्नाटे में बैठे बैठे
+
ये भी क्या कम है कि तू अपने जवाँ अश्‍कों से
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अपने हालात के दामन को भिगो सकता है
+
उस जहाँ में कि जहाँ सूख गया है सब कुछ
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ये भी क्या कम है कि तू आज भी रो सकता है !
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17:21, 20 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण

चले आइए
ज़बानों की सरहद के उस पार
जहाँ बस ख़मोशी का दरिया
मचलता है अपने में तन्हा
ख़ुद अपने अदम ही में ज़िंदा

ज़बानों की सरहद के उस पार
किसी की भी आमद नहीं है
बस इक जाल पैहम हदों का
मगर कोई सरहद नहीं है