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"जीवन में खरे नहीं / रमेश रंजक" के अवतरणों में अंतर
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छूते ही रहे सदा ऊपरी सतह | छूते ही रहे सदा ऊपरी सतह | ||
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14:46, 16 मार्च 2015 का अवतरण
कोल्हू के बैल की तरह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
लो करने आ गए जिरह।
खुर वही पुजे हैं
तोड़ा है जिसने भी
धरती का बाँझपन
और सुम वही हैं
नाप गए बिना नापी
धरती का आयतन
भीतर तक भरे नहीं
ऊपर से हरे नहीं
लालसा ही अर्थ की
जीवन में खरे नहीं
छूते ही रहे सदा ऊपरी सतह
लो करने आ गए जिरह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
कोल्हू के बैल की तरह ।