"ग्रीष्म का मध्यान्ह / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं | विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं | ||
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं | किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं | ||
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छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है | छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है | ||
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है | चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है | ||
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प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है | प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है | ||
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है | तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है | ||
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स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं | स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं | ||
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं | जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं | ||
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पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है | पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है | ||
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है | होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है | ||
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निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है | निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है | ||
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं | डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं | ||
− | देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह | + | |
+ | देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है | ||
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है | आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है | ||
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लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है | लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है | ||
− | कुम्भकर्ण-सा | + | कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है |
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हरे-हरे पत्ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं | हरे-हरे पत्ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं | ||
− | देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते | + | देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं |
− | धूल | + | |
+ | धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है | ||
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है | अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है | ||
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15:57, 2 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण
विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं
किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं
छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है
चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है
प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है
तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है
स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं
जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं
पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है
होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है
निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है
डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं
देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है
आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है
लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है
कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है
हरे-हरे पत्ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं
देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं
धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है
अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है