"दो पद / मानबहादुर सिंह" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | '''1''' | + | '''1''' |
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा, | यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा, | ||
इस फ़ाइल से उस फ़ाइल तक, मकड़ी जाल बुन रहा । | इस फ़ाइल से उस फ़ाइल तक, मकड़ी जाल बुन रहा । | ||
पंक्ति 23: | पंक्ति 23: | ||
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा ।। | यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा ।। | ||
+ | '''2''' | ||
+ | यह दंगा काना कंजा है, | ||
+ | इसका देसी हाथ मगर परदेशी ख़ूनी पंजा है । | ||
+ | इकतरफ़ा देखे यह जालिम एक तरफ़ बिल्कुल अन्धा है | ||
+ | जो गड़ास इसके हाथों में महज किसी का धन्धा है । | ||
+ | गरदन काट गढ़ें जो कुरसी, उनकी जाति भव्य कोने में | ||
+ | वे प्रभुता के सौदागर हैं, ख़ून बदलते हैं सोने में । | ||
+ | तुम भी तो अब फार हार, सूई पर मरते पाग़ल होकर | ||
+ | जैसे खेत पड़ा हो बंजर, मारो मरो मेड़ को बोकर । | ||
+ | दुश्मन जिस मैदान छिपा है, उसे छोड़ लड़ने का मतलब | ||
+ | साँप छोड़ उसके निशान को, पीट कर रहे अपना करतब । | ||
+ | हिन्दू मारो, मुस्लिम मारो, असमी या पंजाबी मारो | ||
+ | सुखवन डाल कहीं वे बैठे, तुम झगड़ो घर अपना जारो । | ||
+ | बाल नोच अपने पछताओ, इसका तन मन सब गंजा है | ||
+ | यह दंगा काना कंजा है । | ||
</poem> | </poem> |
01:01, 10 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
1
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा,
इस फ़ाइल से उस फ़ाइल तक, मकड़ी जाल बुन रहा ।
कब से खड़ा चिरौरी करता, मेरी पेन्शन कहाँ फँसी है
सेवामुक्त हुआ मैं कबका, नाव किनारे पहुँच धँसी है ।
साहब तक काग़ज़ पहुँचाता, बस दस्तख़त भर ही तो करना
दस रुपए दे रहा कहता, सौ से नीचे काम न बनना ।
कहते हैं कायथ खटकीरा, जाने नहीं पराई पीरा
सुबह-सुबह घर भी जा करके, दे आया बच्चों को खीरा ।
मगर आज फिर टरका देगा, बस भाड़ा कल पुनः लगेगा
बीस रुपए भी ले लेता, कम से कम कल वक़्त बचेगा ।
फ़ाइल, दस्तख़त और मुहर में, घात लगी बैठी आज़ादी
सारी प्रगति यहीं आ उलझी, बुनती है केवल बरबादी ।
सीधा सहज काम जो क्षण का, बरसों फँसकर माथ धुन रहा
यह बाबू कुछ नहीं सुन रहा ।।
2
यह दंगा काना कंजा है,
इसका देसी हाथ मगर परदेशी ख़ूनी पंजा है ।
इकतरफ़ा देखे यह जालिम एक तरफ़ बिल्कुल अन्धा है
जो गड़ास इसके हाथों में महज किसी का धन्धा है ।
गरदन काट गढ़ें जो कुरसी, उनकी जाति भव्य कोने में
वे प्रभुता के सौदागर हैं, ख़ून बदलते हैं सोने में ।
तुम भी तो अब फार हार, सूई पर मरते पाग़ल होकर
जैसे खेत पड़ा हो बंजर, मारो मरो मेड़ को बोकर ।
दुश्मन जिस मैदान छिपा है, उसे छोड़ लड़ने का मतलब
साँप छोड़ उसके निशान को, पीट कर रहे अपना करतब ।
हिन्दू मारो, मुस्लिम मारो, असमी या पंजाबी मारो
सुखवन डाल कहीं वे बैठे, तुम झगड़ो घर अपना जारो ।
बाल नोच अपने पछताओ, इसका तन मन सब गंजा है
यह दंगा काना कंजा है ।