"एक लड़की / मनीषा पांडेय" के अवतरणों में अंतर
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19:47, 2 नवम्बर 2015 के समय का अवतरण
1.
लड़की यूँ ही सारे संसार में
भटकती थी
मानो पैर में चक्के जुते हों
यूँ ही दौड़कर चढ़ जाती थी पहाड़
उछलकर आसमान तोड़ लाती
यूँ ही पेड़ की इस डाली से उस डाली
साइकिल उठा पूरे शहर का चक्कर लगाती
कुएँ में पैर लटकाकर
नमक के साथ करौंदा खाती
पहाड़ी झरने-सी बहती थी
यूँ ही कभी यहाँ, कभी वहाँ
उसके सीने में था अरब सागर
आँखों में हिमालय
अपनी चोटी की रस्सी बना
लड़की यूँ ही एक दिन
चाँद को छू आना चाहती थी
आसमान के सारे सितारे
उसने अपने दुपट्टे में टाँक रखे थे
उसने सोचा था
जाएगी एक दिन दूर पहाड़ी के उस पार
धरती के दूसरे छोर पर
जहाँ छह महीने दिन, छह महीने रात होती है
टॉय-टे्न पर चढ़ेगी
चीड़ के जंगलों में जाएगी
यूँ ही वहाँ गुज़ारेगी एक रात
कौन जानता है
होंठों को एक बार डूबकर चूम लेने वाला
धरती के उस छोर पर ही मिले
या सागौन के जंगलों में
लड़की आखिर लड़की थी
लड़की यूँ ही सबकुछ चाह लेती
सबकुछ कर गुज़रती
2
लड़की अब यूँ ही कुछ नहीं चाहती
न पहाड़, न नदी, न आसमान
न धरती का दूसरा छोर
न चीड़ के जंगल
लड़की अब यूँ ही चौराहे तक भी नहीं जाती
गर पति के लौटने से पहले
रात की सब्ज़ी के लिए
बैंगन न खरीदने हों।