"कमाल की औरतें १ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर
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साबुन लगाती रहती हैं | साबुन लगाती रहती हैं |
14:52, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण
देर तक औरतें अपने साड़ी के पल्लू में
साबुन लगाती रहती हैं
कि पोंछ लिए थे भीगे हाथ
हल्दी के दाग...अचार की खटास या थाली की गर्द
या झाड़ लिया था नमक
पोंछ लिया था छुटके ने अपना मटियाला हाथ
साथ इसके ये भी कि गठियाकर रखा था
ज़माने भर का दर्द
सर्द बिस्तर पर निचुडऩे के बाद का माथा पोंछा था शायद
बाद मंदिर की आरती की थाली भी
बेचैनियों पर आंख का पानी भी
ज़माने भर के दाग धबे को
एक पूरा दिन खोंसे रही
अपनी कमर के गिर्द
अब देर तक अपना पल्लू साफ करेंगी औरतें
कि पति के मोहक क्षणों में
मोहिनी-सी, नीले अम्बर-सी तन जायेंगी
ये कपड़े को देर तक धोती नज़र आएंगी
मुश्किल के पांच दिनों से ज्यादा मैले कपड़े
ज़माने का दाग
ये अपनी हवाई चपलों को भी धोती हैं देर तक
घर की चहारदीवारी के बाहर पैर ना रखने वाली
घूमती रहती हैं...अपनी काल्पनिक यात्राओं में दूरदराज
ये जब भाग-भाग कर निपटाती हैं अपने काम
ये नाप आती हैं समदर की गहराई
देख आती हैं नीली नदी...चढ़ आती हैं ऊंचे पहाड़
मायके की उस खाट पर
अपने पिता के माथे को सहला आती हैं
जो जाने कब से बीमार है
इनकी चप्पलें हजार-हजार यात्राओं से मैली हैं
ये देर तक ब्रश से मैल निकालती पाई जाती हैं
ये देर तक धोती रहती हैं मुंह की आग
भाप को मिले घड़ी भर आराम
ये चूडिय़ों में फंसी कलाइयों को निकाल बाहर करती हैं
जब धोती हैं हाथ
ये लाल होंठों को रगड़ देती है
सफेद रूमाल में उतार देती हैं तुम्हारी जूठन
ये चौखट के बाहर जाने के रास्ते तलाशती हैं
पर रुकी रह जाती हैं...अपने बच्चों के लिए
ये देर तक धोती हैं
अपने सपने...अपने ख्याल...अपनी उमंगें
इतनी कि सफेद पड़ जाए रंग
ये असली रंग की औरतें
नकली चेहरे के पीछे छुपा लेती हैं तुम्हारी असलियत
ये औरतें
अपनी आत्मा पर लगी तमाम खरोंचों को भी छुपा ले जाती हैं
और तुम कहते हो...
कमाल की औरतें हैं...
इतनी देर तक नहाती हैं!