"कमाल की औरतें १४ / शैलजा पाठक" के अवतरणों में अंतर
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14:56, 21 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण
पहली बार मन रोया था
जब अपने प्राइमरी स्कूल को
अलविदा कहा
पिछले डेस्क पर छूट गया
पुराना बस्ता
गुम हो गया वो अंडे के आकार वाला
स्टील का टिफिन
जिसमें अम्मा ठूंस के रखा करती थी पूरी अचार
तमाम रंग-बिरंगी पेंसिलों का खोना पाना
महकने वाले रबर में सबकी हिस्सेदारी
उस आखिरी दिन डैनी सर ने
मेरे गाल को थपथपा के चूम लिया
वापस दिए मेरे घूंघरू ये कह कर
कि डांस सीखती रहना
अतीत के दरवाजे पर टंगा है घूंघरू
जब भी यादें अन्दर आती हैं
सब छमछम सा हो जाता है
बड़े और समझदार होने के क्रम में
हम लगातार बिछड़ते रहे
स्कूल कॉलेज दोस्त
फिर वो आंगन भाई का साथ
पिता की विराट छाती से चिपक कर
वो सबसे दुलारे पल
और आखिर में हमेशा के लिए
बिछड़ गई अम्मा
बेगाना हो गया शहर
राजघाट के पुल से गुजरती ट्रेन
डूबती गंगा...शीतला माता के
माथे का बड़ा टिका सारे घाट मुहल्ला
विश्वनाथ मंदिर का गुम्बद सब बिछड़ गया
अब रचती हूं यादों की महकती मेहंदी अपने हाथों में
चूमती हूं अपना शहर
...और बनारस हो जाती हूं।