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"उत्तर-वासन्ती दिन / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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एक छोड़ उस लौ को जो | एक छोड़ उस लौ को जो | ||
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17:56, 30 मार्च 2008 का अवतरण
यह अप्रत्याशित उजला
दिपती धूप-भरा उत्तर-वासन्ती दिन
जिस में फूलों के रंग
चौंक कर खिले,
पंछियों की बोली है ठिठकी-सी,
हम साझा भोग सके होते—तू-मैं—
तो भी मैं इसे समूचा तुझ को भेंट चुका होता:
अब भी देता हूँ
(चौंका, ठिठका मैं)
उतना ही सहज, कदाचित् तेरे उतना ही अनजाने भी।
ले, दिया गया यह:
एक छोड़ उस लौ को जो
एकान्त मुझे झुलसाती है।