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"साथी जो साथ नहीं / बृजेश नीरज" के अवतरणों में अंतर
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10:03, 14 जून 2016 के समय का अवतरण
तुम इसे इत्तेफ़ाक कह लो
पर सच यही है कि
तुम साथ नहीं होते
जब शिराओं में जमने लगता है
समय
ज़मीन लाल हो कर बंजर हो जाती है
पीपल की जड़ें धरती से उखड़ कर
धँस जाती हैं दीवारों में
हिलने लगती है दीवार
दरक जाती है छत
तुम साथ नहीं हो
जब पतझड़ में झड़ गए
शब्दों की शाख से अर्थ के पत्ते
तुम साथ हो कर भी
साथ नहीं होते
हर उस कठिन दौर में
जब जीना, मरने से बदतर हो जाता है
आख़िर तुम क्यों साथ नहीं हो
मैं यह समझने की कोशिश में हूँ