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"हाथों के दिन आएँगे / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

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एक विरोधाभास त्रिलोचन है. मै उसका<br>
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हाथों के दिन आयेंगे, कब आयेंगे,<br>
रंग-ढंग देखता रहा हूँ. बात कुछ नई<br>
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यह तो कोई नहीं बताता, करने वाले<br>
नहीं मिली है.घोर निराशा में भी मुसका<br>
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जहाँ कहीं भी देखा अब तक डरने वाले<br>
कर बोला, कुछ बात नहीं है अभी तो कई<br><br>
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मिलते हैं। सुख की रोटी कब खायेंगे,<br>
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सुख से कब सोयेंगे, उस को कब पायेंगे,<br>
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जिसको पाने की इच्छा है, हरने वाले,<br>
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हर हर कर अपना-अपना घर भरने वाले,<br>
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कहाँ नहीं हैं। हाथ कहाँ से क्या लायेंगे।<br><br>
  
और तमाशे मैं देखुँगा. मेरी छाती<br>
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हाथ कहाँ हैं,वंचक हाथों के चक्के में<br>
वज्र की बनी है, प्रहार हो, फिर प्रहार हो,<br>
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बंधक हैं,बँधुए कहलाते हैं, धरती है<br>
बस न कहूँगा. अधीरता है मुझे न' भाती<br>
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निर्मम,पेट पले कैसे इस उस मुखड़े<br>
दुख की चढी नदी का स्वाभाविक उतार हो.<br><br>
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की सुननी पड़ जाती है, धौंसौं के धक्के में<br>
 
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कौन जिए।जिन साँसों में आया करती है<br>
संवत पर सवत बीते, वह कहीं न टिहटा,<br>
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भाषा,किस को चिन्ता है उसके दुखड़ों की।<br><br>
पाँवों में चक्कर था. द्रवित देखने वाले<br>
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थे. परास्त हो यहाँ से हटा, वहाँ से हटा,<br>
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खुश थे जलते घर से हाथ सेंकने वाले.<br><br>
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औरों का दुख दर्द वह नहीं सह पाता है.<br>
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यथाशक्ति जितना बनता है कर जाता है.
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21:29, 2 अप्रैल 2008 के समय का अवतरण

हाथों के दिन आयेंगे, कब आयेंगे,
यह तो कोई नहीं बताता, करने वाले
जहाँ कहीं भी देखा अब तक डरने वाले
मिलते हैं। सुख की रोटी कब खायेंगे,
सुख से कब सोयेंगे, उस को कब पायेंगे,
जिसको पाने की इच्छा है, हरने वाले,
हर हर कर अपना-अपना घर भरने वाले,
कहाँ नहीं हैं। हाथ कहाँ से क्या लायेंगे।

हाथ कहाँ हैं,वंचक हाथों के चक्के में
बंधक हैं,बँधुए कहलाते हैं, धरती है
निर्मम,पेट पले कैसे इस उस मुखड़े
की सुननी पड़ जाती है, धौंसौं के धक्के में
कौन जिए।जिन साँसों में आया करती है
भाषा,किस को चिन्ता है उसके दुखड़ों की।