भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इक ज़रा सी चाह में / आलोक यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं आईने के स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं
 
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं
 
आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूँ मैं
 
आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूँ मैं
 +
  
 
रंजो-गम उससे छुपाता हूँ मैं अपने लाख पर
 
रंजो-गम उससे छुपाता हूँ मैं अपने लाख पर

08:26, 8 सितम्बर 2016 का अवतरण

इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूँ मैं


रंजो-गम उससे छुपाता हूँ मैं अपने लाख पर पढ़ ही लेता है वो चेहरा, फिर भी झुठलाता हूँ मैं

कर्ज क्या लाया मैं खुशियाँ जिंदगी से एक दिन रोज करती है तकाजा और झुँझलाता हूँ मैं

हौसला तो देखिए मेरा, गजल की खोज में अपने ही सीने में खंजर सा उतर जाता हूँ मैं

दे सजा-ए-मौत या फिर बख्श दे तू जिंदगी कशमकश से यार तेरी सख्त घबराता हूँ मैं

मौन वो पढ़ता नहीं और शब्द भी सुनता नहीं जो भी कहना चाहता हूँ कह नहीं पाता हूँ मैं

ख्वाब सच करने चला था गाँव से मैं शहर को नींद भी खोकर यहाँ 'आलोक' पछताता हूँ मैं

-आलोक यादव