भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"प्लास्टिकी वक़्त में / रति सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रति सक्सेना }} आज मैंने समेट लिए वे तमाम पाए अनपाए खिलौ...)
 
पंक्ति 20: पंक्ति 20:
 
जगह भी कहाँ बची है
 
जगह भी कहाँ बची है
  
अवधूत से खिलंदडीपन के लिए
+
अवधूत से खिलंदड़ीपन के लिए

00:07, 20 मई 2008 का अवतरण

आज मैंने समेट लिए

वे तमाम पाए अनपाए खिलौने

और उन्हें बनाती कल्पनाएँ

कल्पनाओं से निकले बीज

बीज़ से अनफूटे कल्ले

यों भी

इस प्लास्टिकी वक़्त में

जगह भी कहाँ बची है

अवधूत से खिलंदड़ीपन के लिए