"कुछ और दोहे / बनज कुमार ’बनज’" के अवतरणों में अंतर
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बर्फ़ अपाहिज़ की तरह, करती थी बर्ताव। | बर्फ़ अपाहिज़ की तरह, करती थी बर्ताव। | ||
देख धूप ने दे दिए, उसे हज़ारों पाँव।। | देख धूप ने दे दिए, उसे हज़ारों पाँव।। | ||
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+ | छुप जाता है इसलिए, सूर्य कहीं हर रोज़।। | ||
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+ | ना मुझमें मकरन्द है. ना हीं रंग-सुगन्ध। | ||
+ | लिखे तितलियों ने मगर, मुझ पर कई निबन्ध।। | ||
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+ | चलो, सभी मिलकर करें, कारण आज तलाश। | ||
+ | नफ़रत क्यों करने लगा, धरती से आकाश।। | ||
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+ | रत्ती भर खोटी हुई, तेरी अगर निगाह। | ||
+ | नहीं कभी तुझको नज़र, आएगा अल्लाह।। | ||
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+ | देता है अभिमान को, रोज़ नया आकार। | ||
+ | वो पानी पाता नहीं, कभी नदी का प्यार।। | ||
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15:45, 18 जून 2017 का अवतरण
दुःख के पल दो चार हों, सुख के कई हज़ार।
कर देना नववर्ष तू, ऐसा अबकी बार।।
समझ न पाया आज तक, हमको कोई साल।
किया नहीं हमने मगर, इसका कभी मलाल।।
नए साल तू आएगा, फिर से खाली हाथ।
फिर भी हम देंगे मगर, तेरा जमकर साथ।।
साथ मुसव्विर आसमाँ, के हो गई ज़मीन।
बदलेगा मौसम मुझे, है इस बार यक़ीन।।
हम तुलसी रैदास हैं, हैं रसखान कबीर।
नया साल हमसे हुआ, है हर साल अमीर।।
चोटिल पनघट हो गए, घायल हैं सब ताल।
अब पानी इस गाँव का, नहीं रहा वाचाल।।
भाई चारे से बना, गिरता देख मकान।
राजनीत के आ गई, चेहरे पर मुस्कान।।
बहुत ज़रूरी हो गया, इसे बताना साँच।
जगह-जगह फैला रहा वक़्त नुकीले काँच।।
सोच विचारों के जहाँ, गिरते कट कर हाथ।
हम ऐसे माहोल में भी, रहते हैं साथ।।
करता हूँ बाहर इसे, रोज़ पकड़ कर हाथ।
घर ले आता है समय, मगर उदासी साथ।।
मरने की फ़ुर्सत मुझे, मत देना भगवान्।
मुझे खोलने हैं कई ,अब भी रोशनदान।
नहीं बढ़ाना चाहता, परछाईं पर बोझ।
करता हूँ कम इसलिए, क़द अपना हर रोज़।।
फैल रहा है आजकल, घर-घर में ये रोग।
क़द के खातिर कर रहे, एड़ी ऊंची लोग।।
उतर गई थी गोद से, डर के मारे छाँव।
रखे पेड़ पर धूप ने, ज्यों ही अपने पाँव।।
आज हवा के साथ में, घूम रही थी आग।
वर्ना यूँ जलता नहीं, बस्ती का अनुराग।।
बना दिया उसका मुझे, क्यों तूने आकाश।
जो धरती व्यवहार में है, इक ज़िन्दा लाश।।
अगर मिटाकर स्वयं को मैं, हो जाता मौन।
तो तुझसे दिल खोलकर, बातें करता कौन।।
ऐसे जलने चाहिए, दीपक अबके बार।
जो भर दे हर आदमी के, मन में उजियार।।
हर दिन दीवाली मने, हर दिन बरसे नूर।
राम बसे तुझमें मगर, रहें दशानन दूर।।
जाकर देवों के नहीं, बैठा कभी समीप।
फ़ानूसों की गौद में, पलने वाला दीप।।
बर्फ़ अपाहिज़ की तरह, करती थी बर्ताव।
देख धूप ने दे दिए, उसे हज़ारों पाँव।।
सोच रहा हूँ फेंक दूँ, घर से सभी उसूल।
पड़े-पड़े ये खा रहे हैं, बरसों से धूल।।
एक रात तक का नहीं, सह सकता ये बोझ।
छुप जाता है इसलिए, सूर्य कहीं हर रोज़।।
ना मुझमें मकरन्द है. ना हीं रंग-सुगन्ध।
लिखे तितलियों ने मगर, मुझ पर कई निबन्ध।।
चलो, सभी मिलकर करें, कारण आज तलाश।
नफ़रत क्यों करने लगा, धरती से आकाश।।
रत्ती भर खोटी हुई, तेरी अगर निगाह।
नहीं कभी तुझको नज़र, आएगा अल्लाह।।
देता है अभिमान को, रोज़ नया आकार।
वो पानी पाता नहीं, कभी नदी का प्यार।।