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"मुक्तक / बनज कुमार ’बनज’" के अवतरणों में अंतर

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मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!  
 
मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!  
 
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।
 
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।
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हाँ में हाँ, बस, कहते रहिए।
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मार दुखों की सहते रहिए।
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आप ओढ़कर कफ़न पुराना,
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पल-पल क्षण-क्षण दहते रहिए।
 
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16:14, 18 जून 2017 के समय का अवतरण

जगह नहीं चाही है मैंने, कभी किसी के रूप भवन में।
न मैंने उड़ना चाहा है, कभी किसी के निजी गगन में।
मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।

हाँ में हाँ, बस, कहते रहिए।
मार दुखों की सहते रहिए।
आप ओढ़कर कफ़न पुराना,
पल-पल क्षण-क्षण दहते रहिए।