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"जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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इनमें ढल जाइए या चले आइए।
 
इनमें ढल जाइए या चले आइए।
  
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-डॉ॰ जगदीश व्योम
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इतने आरोप न थोपो
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इतने आरोप न थोपो
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मन बागी हो जाए
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मन बागी हो जाए,
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वैरागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो.......
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यदि बांच सको तो बांचो
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मेरे अंतस की पीड़ा
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जीवन हो गया तरंग रहित
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बस पाषाणी क्रीडा
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मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
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जब अकुलाती है
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शब्दों की लहर लहर लहराकर
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तपन बुझाती है
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ये चिनगारी फिर से न मचलकर
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आगी हो जाए
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मन बागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो..........
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खुद खाते हो पर औरों पर
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आरोप लगाते हो
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सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
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संग बिक जाते हो
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आरोपों की जीवन में जब-जब
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हद हो जाती है
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परिचय की गांठ पिघलकर
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आंसू बन जाती है
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नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
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बैरागी हो जाए
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मन बागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो.........
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आरोपों की विपरीत दिशा में
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चलना मुझे सुहाता
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सपने में भी है बिना रीढ़ का
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मीत न मुझको भाता
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आरोपों का विष पीकर ही तो
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मीरा घर से निकली
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लेखनी निराला की आरोपी
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गरल पान कर मचली
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ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
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सहभागी हो जाए
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मन बागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो .........
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क्यों दिए पंख जब उड़ने पर
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लगवानी थी पाबंदी
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क्यों रूप वहां दे दिया जहां
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बस्ती की बस्ती अंधी
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जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह
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करते जीवन क्रीड़ा
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वे क्या जाने सुकरातों की
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कैसी होती है पीड़ा
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जीवन्त बुद्धि वेदनापूत की
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अनुरागी हो जाए
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मन बागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो.......
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-डॉ॰ जगदीश व्योम
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अक्षर
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अक्षर कभी क्षर नहीं होता
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इसीलिए तो वह 'अक्षर' है
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क्षर होता है तन
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क्षर होता है मन
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क्षर होता है धन
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क्षर होता है अज्ञान
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क्षर होता है
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मान और सम्मान
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परंतु नहीं होता है कभी क्षर
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'अक्षर'
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इसलिए
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अक्षरों को जानो
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अक्षरों को पहचानो
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अक्षरों को स्पर्श करो
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अक्षरों को पढ़ो
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अक्षरों को लिखो
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अक्षरों की आरसी में
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अपना चेहरा देखो
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इन्हीं में छिपा है
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तुम्हारा नाम
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तुम्हारा ग्राम
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और तुम्हारा काम
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सृष्टि जब समाप्त हो जाएगी
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तब भी रह जाएगा 'अक्षर'
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क्यों कि 'अक्षर' तो ब्रह्म है
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और भला
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ब्रह्म भी कहीं मरता है?
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आओ! बांचें
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ब्रह्म के स्वरूप को
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सीखकर अक्षर
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-डॉ॰ जगदीश व्योम
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रात की मुठ्ठी
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वक्त का आखेटक
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घूम रहा है
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शर संधान किए
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लगाए है टकटकी
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कि हम
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करें तनिक सा प्रमाद
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और, वह
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दबोच ले हमें
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तहस नहस कर दे
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हमारे मिथ्याभिमान को
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पर
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आएगा सतत नैराश्य ही
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उसके हिस्से में
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क्यों कि
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हमने पहचान ली है
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उसकी पगध्वनि
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दूर हो गया है
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हमसे
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हमारा तंद्रिल व्यामोह
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हम ने पढ़ लिए हैं
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समय के पंखों पर उभरे
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पुलकित अक्षर
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जिसमें लिखा है कि-
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आओ!
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हम सब मिल कर
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खोलें,
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रात की मुठ्ठी को
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जिसमें कैद है
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समूचा सूरज।
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-डॉ॰ जगदीश व्योम
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अहिंसा के बिरवे
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चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
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बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें
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प्रदूषित हुई हैं धरा की हवाएँ।
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चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
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बहुत वक़्त बीता कि जब इस चमन में
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अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
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थे सोये हुए भाव जर्नमन में गहरे
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पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे,
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बने वृक्ष, वर्टवृक्ष, छाया घनेरी
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धरा जिसको महसूसती आज तक है
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उठीं वक़्त की आँधियाँ कुछ विषैली
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नियति जिसको महसूसती आज तक है,
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नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर
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अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ।
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चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।
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नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
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सदा अंत इसका रहा दु:खदाई
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महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
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अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
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रहे शुद्ध-मन, शुद्ध-तन, शुद्ध-चिंतन
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अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
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दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
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सुखद खूब होती अहिंसा की रोटी
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नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
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नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
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चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
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-र्डॉ० जगदीश 'व्योम'
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बहते जल के साथ न बह
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गजल
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बहते जल के साथ न बह
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कोशिश करके मन की कह।
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मौसम ने तेवर बदले
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कुछ तो होगी खास बज़ह।
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कुछ तो खतरे होंगे ही
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चाहे जहाँ कहीं भी रह।
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लोग तूझे कायर समझें
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इतने अत्याचार न सह।
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झूठ कपट मक्कारी का
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चारण बनकर गजल न कह।
  
 
-डॉ॰ जगदीश व्योम
 
-डॉ॰ जगदीश व्योम

12:02, 5 अगस्त 2006 का अवतरण

माँ

माँ कबीर की साखी जैसी

तुलसी की चौपाई-सी माँ मीरा की पदावली-सी माँ है ललित स्र्बाई-सी।

माँ वेदों की मूल चेतना माँ गीता की वाणी-सी माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुक्त-सी लोकोक्तर कल्याणी-सी।

माँ द्वारे की तुलसी जैसी माँ बरगद की छाया-सी माँ कविता की सहज वेदना महाकाव्य की काया-सी। माँ अषाढ़ की पहली वर्षा सावन की पुरवाई-सी माँ बसन्त की सुरभि सरीखी बगिया की अमराई-सी।

माँ यमुना की स्याम लहर-सी रेवा की गहराई-सी माँ गंगा की निर्मल धारा गोमुख की ऊँचाई-सी।

माँ ममता का मानसरोवर हिमगिरि सा विश्वास है माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी कावा है कैलाश है।

माँ धरती की हरी दूब-सी माँ केशर की क्यारी है पूरी सृष्टि निछावर जिस पर माँ की छवि ही न्यारी है।

माँ धरती के धैर्य सरीखी माँ ममता की खान है माँ की उपमा केवल है माँ सचमुच भगवान है।

-डॉ० जगदीश व्योम

सो गई है मनुजता की संवेदना

सो गई है मनुजता की संवेदना गीत के रूप में भैरवी गाइए गा न पाओ अगर जागरण के लिए कारवां छोड़कर अपने घर जाइए

झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।

काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी और नीलाम होते रहे आचरण लेखनी छुप के आंसू बहाती रही उनको रखने को गंगाजली चाहिए।

राजमहलों के कालीन की कोख में कितनी रंभाओं का है कुंआरा स्र्दन देह की हाट में भूख की त्रासदी और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।

भूख के प'श्न हल कर रहा जो उसे है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे और चाहे कि युग उसको सम्मान दे ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।

कोई भी तो नहीं दूध का है धुला है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये इनमें ढल जाइए या चले आइए।

-डॉ॰ जगदीश व्योम

इतने आरोप न थोपो

इतने आरोप न थोपो मन बागी हो जाए मन बागी हो जाए, वैरागी हो जाए इतने आरोप न थोपो.......

यदि बांच सको तो बांचो मेरे अंतस की पीड़ा जीवन हो गया तरंग रहित बस पाषाणी क्रीडा मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर जब अकुलाती है शब्दों की लहर लहर लहराकर तपन बुझाती है ये चिनगारी फिर से न मचलकर आगी हो जाए मन बागी हो जाए इतने आरोप न थोपो..........

खुद खाते हो पर औरों पर आरोप लगाते हो सिक्कों में तुम ईमान-धरम के संग बिक जाते हो आरोपों की जीवन में जब-जब हद हो जाती है परिचय की गांठ पिघलकर आंसू बन जाती है नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब बैरागी हो जाए मन बागी हो जाए इतने आरोप न थोपो.........

आरोपों की विपरीत दिशा में चलना मुझे सुहाता सपने में भी है बिना रीढ़ का मीत न मुझको भाता आरोपों का विष पीकर ही तो मीरा घर से निकली लेखनी निराला की आरोपी गरल पान कर मचली ये दग्ध हृदय वेदनापथी का सहभागी हो जाए मन बागी हो जाए इतने आरोप न थोपो .........

क्यों दिए पंख जब उड़ने पर लगवानी थी पाबंदी क्यों रूप वहां दे दिया जहां बस्ती की बस्ती अंधी जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह करते जीवन क्रीड़ा वे क्या जाने सुकरातों की कैसी होती है पीड़ा जीवन्त बुद्धि वेदनापूत की अनुरागी हो जाए मन बागी हो जाए इतने आरोप न थोपो.......

-डॉ॰ जगदीश व्योम

अक्षर

अक्षर कभी क्षर नहीं होता इसीलिए तो वह 'अक्षर' है क्षर होता है तन क्षर होता है मन क्षर होता है धन क्षर होता है अज्ञान क्षर होता है मान और सम्मान परंतु नहीं होता है कभी क्षर 'अक्षर' इसलिए अक्षरों को जानो अक्षरों को पहचानो अक्षरों को स्पर्श करो अक्षरों को पढ़ो अक्षरों को लिखो अक्षरों की आरसी में अपना चेहरा देखो इन्हीं में छिपा है तुम्हारा नाम तुम्हारा ग्राम और तुम्हारा काम सृष्टि जब समाप्त हो जाएगी तब भी रह जाएगा 'अक्षर' क्यों कि 'अक्षर' तो ब्रह्म है और भला ब्रह्म भी कहीं मरता है? आओ! बांचें ब्रह्म के स्वरूप को सीखकर अक्षर

-डॉ॰ जगदीश व्योम

रात की मुठ्ठी

वक्त का आखेटक घूम रहा है शर संधान किए लगाए है टकटकी कि हम करें तनिक सा प्रमाद और, वह दबोच ले हमें तहस नहस कर दे हमारे मिथ्याभिमान को पर आएगा सतत नैराश्य ही उसके हिस्से में क्यों कि हमने पहचान ली है उसकी पगध्वनि दूर हो गया है हमसे हमारा तंद्रिल व्यामोह हम ने पढ़ लिए हैं समय के पंखों पर उभरे पुलकित अक्षर जिसमें लिखा है कि- आओ! हम सब मिल कर खोलें, रात की मुठ्ठी को जिसमें कैद है समूचा सूरज।

-डॉ॰ जगदीश व्योम

अहिंसा के बिरवे


चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ। बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें प्रदूषित हुई हैं धरा की हवाएँ। चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।


बहुत वक़्त बीता कि जब इस चमन में अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे थे सोये हुए भाव जर्नमन में गहरे पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे, बने वृक्ष, वर्टवृक्ष, छाया घनेरी धरा जिसको महसूसती आज तक है उठीं वक़्त की आँधियाँ कुछ विषैली नियति जिसको महसूसती आज तक है, नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर अभी वक़्त है, हम अभी चेत जाएँ। चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।।


नहीं काम हिंसा से चलता है भाई सदा अंत इसका रहा दु:खदाई महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर अहिंसा की सीधी डगर थी बताई रहे शुद्ध-मन, शुद्ध-तन, शुद्ध-चिंतन अहिंसा के पथ की यही है कसौटी दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा सुखद खूब होती अहिंसा की रोटी नई इस सदी में, सघन त्रासदी में नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ। चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।


-र्डॉ० जगदीश 'व्योम'


बहते जल के साथ न बह

गजल

बहते जल के साथ न बह कोशिश करके मन की कह।

मौसम ने तेवर बदले कुछ तो होगी खास बज़ह।

कुछ तो खतरे होंगे ही चाहे जहाँ कहीं भी रह।

लोग तूझे कायर समझें इतने अत्याचार न सह।

झूठ कपट मक्कारी का चारण बनकर गजल न कह।

-डॉ॰ जगदीश व्योम