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"भूमिका / रोशनी का कारवाँ" के अवतरणों में अंतर

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    डी एम मिश्र की कविताओं से गुजरना समकालीन त्रासद संरचना से रू-ब-रू होना है। चतुर्दिक  फैली  असंगतियों के विरूद्ध, शब्दों की डफली पर जीवन राग गाता हुआ कवि किसी कलन्दर की तरह अपनी बात को पाठक के हृदय पटल पर सँजोता चला जाता है। ऐसा करते हुए डी एम मिश्र प्रतिमानों के आयतन में ‘फिट’ होने के व्यामोह से बचते हैं। उनके नवीन संग्रह ‘रोशनी का कारवाँ’ की  ग़ज़लें शब्द चयन के धरातल पर, गंवई स्पर्श से सम्प्रेषणीय बनती हैं और कही गयी बात बिना किसी बाधा के पाठक तक पहुँचकर उसे समृद्ध कर जाती है। खालिश उर्दू के शब्द, जिस तरह हिन्दी पट्टी के बोलचाल में रमे हुए हैं उनके सटीक प्रयोगों नें डॉ मिश्र की  अभिव्यक्ति को सहजता प्रदान की है। नैतिकता की देशज समझदारी कवि को विशिष्ट बनाती है।
  
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    अपनी कथन भंगिमा के व्याकरण को बताता हुआ कवि कहता है - ‘ गजल बड़ी कहो मगर सरल ज़बान रहे / उठाओ सर तो हथेली पे आसमान रहे।’ मानवता का सिर ऊँचा रहे, उसके स्वाभिमान को कोई खरोंच न सके और सपने उसकी हथेलियों पर, उसकी पहुँच में बने रहें। डॉ मिश्र की रचनाओं की केद्रीयता का सीधा धरातल यही है। कवि ने आगे भी कहा -‘मेरे घर की छत नीची हो मुझे गवारा है / नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो।’ मानवता के चेहरे को विरूप करने वाली ताकतो को कवि खूब समझता है। ‘सुनो भाई साधेा’ की जुगत में जनसामान्य को समझाता हुआ कवि कहता है - ‘ओ मेरे तालाब की भेाली मछलियों सावधान / ये वही बगुले हैं जो कहते हैं त्यागी हो गये।’
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      असंगतियों के भेाक्तापन ने कवि को व्यंग्य का नवीन धरातल सौंपा है। डॉ मिश्र के व्यंग्य, स्थितियों के  धरातल से उठकर उसते कर्ता को लक्ष्य करते हैं। उन्हें मलाल है’ सुनता नही फरियाद कोई हुक्मरान तक / शामिल है इस गुनाह में आलाकमान तक।’ पहले स्थिति,  फिर स्थिति के कर्ता पर सधा आक्रमण। गाँव, खेत - खलिहान, दालान, ओसारा, आँगन और माँ से जो कवि को सहज लगाव है वह उसे अपनी जड़ों से जोड़े रहने का जज़्बा देता रहता है। यही कारण है कि कवि सम्मेलनों में भी ये पंक्तियाँ प्रभावी रही हैं।
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    अंततः एक नये आस्वाद के समकालीन कवि के नवीन काव्य संग्रह का स्वागत करते हुए आशा करता हूँ कि व्यापक मंगल विधान का यह काव्य -कलश मानवता को सजग और समृद्ध करेगा।
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                                        --- डॉ राधेश्याम सिंह
 
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14:56, 8 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

     डी एम मिश्र की कविताओं से गुजरना समकालीन त्रासद संरचना से रू-ब-रू होना है। चतुर्दिक फैली असंगतियों के विरूद्ध, शब्दों की डफली पर जीवन राग गाता हुआ कवि किसी कलन्दर की तरह अपनी बात को पाठक के हृदय पटल पर सँजोता चला जाता है। ऐसा करते हुए डी एम मिश्र प्रतिमानों के आयतन में ‘फिट’ होने के व्यामोह से बचते हैं। उनके नवीन संग्रह ‘रोशनी का कारवाँ’ की ग़ज़लें शब्द चयन के धरातल पर, गंवई स्पर्श से सम्प्रेषणीय बनती हैं और कही गयी बात बिना किसी बाधा के पाठक तक पहुँचकर उसे समृद्ध कर जाती है। खालिश उर्दू के शब्द, जिस तरह हिन्दी पट्टी के बोलचाल में रमे हुए हैं उनके सटीक प्रयोगों नें डॉ मिश्र की अभिव्यक्ति को सहजता प्रदान की है। नैतिकता की देशज समझदारी कवि को विशिष्ट बनाती है।

     अपनी कथन भंगिमा के व्याकरण को बताता हुआ कवि कहता है - ‘ गजल बड़ी कहो मगर सरल ज़बान रहे / उठाओ सर तो हथेली पे आसमान रहे।’ मानवता का सिर ऊँचा रहे, उसके स्वाभिमान को कोई खरोंच न सके और सपने उसकी हथेलियों पर, उसकी पहुँच में बने रहें। डॉ मिश्र की रचनाओं की केद्रीयता का सीधा धरातल यही है। कवि ने आगे भी कहा -‘मेरे घर की छत नीची हो मुझे गवारा है / नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो।’ मानवता के चेहरे को विरूप करने वाली ताकतो को कवि खूब समझता है। ‘सुनो भाई साधेा’ की जुगत में जनसामान्य को समझाता हुआ कवि कहता है - ‘ओ मेरे तालाब की भेाली मछलियों सावधान / ये वही बगुले हैं जो कहते हैं त्यागी हो गये।’

      असंगतियों के भेाक्तापन ने कवि को व्यंग्य का नवीन धरातल सौंपा है। डॉ मिश्र के व्यंग्य, स्थितियों के धरातल से उठकर उसते कर्ता को लक्ष्य करते हैं। उन्हें मलाल है’ सुनता नही फरियाद कोई हुक्मरान तक / शामिल है इस गुनाह में आलाकमान तक।’ पहले स्थिति, फिर स्थिति के कर्ता पर सधा आक्रमण। गाँव, खेत - खलिहान, दालान, ओसारा, आँगन और माँ से जो कवि को सहज लगाव है वह उसे अपनी जड़ों से जोड़े रहने का जज़्बा देता रहता है। यही कारण है कि कवि सम्मेलनों में भी ये पंक्तियाँ प्रभावी रही हैं।

    अंततः एक नये आस्वाद के समकालीन कवि के नवीन काव्य संग्रह का स्वागत करते हुए आशा करता हूँ कि व्यापक मंगल विधान का यह काव्य -कलश मानवता को सजग और समृद्ध करेगा।

                                        --- डॉ राधेश्याम सिंह