"मेरो धर्म्म / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा" के अवतरणों में अंतर
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− | क. सङ्घर्षद्धारा मिलेर मन्थन यी स्नायुजाली शिथिल हुनाले | + | क. |
− | + | सङ्घर्षद्धारा मिलेर मन्थन यी स्नायुजाली शिथिल हुनाले | |
− | + | क्या फीँज निकाले ! | |
− | + | किरण छरी दी तब कल्पनाले ! | |
+ | लडका–दिलमा रहने कविले धरम निकाले, कथा सँगाले ! | ||
− | ख. पुजारी डर भो, औ भक्त भो, | + | ख. |
− | + | पुजारी डर भो, औ भक्त भो, | |
− | + | अज्ञातलाई अज्ञेय पारी | |
− | + | रचेर मन्दिर, कुँदी बसाले ! | |
+ | अनेक बान्की दिई छिनाले ! | ||
− | ग. बालक ऋषिका कथा मीठा छन्, | + | ग. |
− | + | बालक ऋषिका कथा मीठा छन्, | |
− | + | म सुन्छु सुन्छु ! | |
− | + | यो कल्पनाको परी जगत्मा, | |
− | + | म रसले घुम्छु म रसले घुम्छु ! | |
− | + | सफा छ खोजी विचित्र मीठो, | |
+ | म मग्न हुन्छु, सतृष्ण हुन्छु ! | ||
− | घ. बगिरहेको मलाई जल देऊ ! | + | घ. |
− | + | बगिरहेको मलाई जल देऊ ! | |
− | + | सुकोस्, पुगोस्वा पयोधि दूर ! | |
− | + | मलाई केवल समुद्रष्णा तृ | |
+ | छचल्किएको, ध्वनि प्रचुर ! | ||
− | ङ. मलाई शङ्का सँगी रहन्छे ! | + | ङ. |
− | + | मलाई शङ्का सँगी रहन्छे ! | |
− | + | मभित्र थोरै छ भित्रको ज्ञान | |
− | + | तथापि घुम्दो छ नागबेली, | |
− | + | तरङ्ग मेरो, समुद्रको गान ! | |
− | + | यता छ लरबर, | |
+ | उता छ आह्वान ! | ||
− | च. विदित चिरेर किनार पारी, लगाउँदो छु म फूलबारी ! | + | च. |
− | + | विदित चिरेर किनार पारी, लगाउँदो छु म फूलबारी ! | |
− | + | नभेटिएको,नछोइएको, | |
+ | प्रवाहको तर प्राणछ जारी ! | ||
− | छ. म गर्तमा गै, "समुद्र छैन” | + | छ. |
− | + | म गर्तमा गै, "समुद्र छैन” | |
− | + | भनें बराबर, अडी शिथिल प्राण ! | |
− | + | बराबर निस्कें, नभेटिए त्यो, | |
− | + | मीठो छ भन्दै मनुष्यनिम्ति | |
+ | मरुमा कुर्वान ! | ||
− | ज. म आफूभन्दा अगाडि खोज्छु, | + | ज. |
− | + | म आफूभन्दा अगाडि खोज्छु, | |
− | + | म आफूभन्दा पछाडि गाँस्छु ! | |
− | + | म जलहरुमा झझल्किएको | |
+ | सतृष्णताको गति मिठास छु ! | ||
− | झ. यहाँ छवि छ, वहाँ छाया, | + | झ. |
− | + | यहाँ छवि छ, वहाँ छाया, | |
− | + | झिमिक झिमिकमा धधप्प, झप्प ! | |
− | + | जो भेटिएको त्यहीं अडेर | |
− | + | यही हो भन्ने हठ प्रदर्शन | |
− | + | म लिन्न, | |
+ | बग्छु, भजी अलभ्य ! | ||
− | ञ. ‘फटिक’ को मन्त्र लिई बगेथें, | + | ञ. |
− | + | ‘फटिक’ को मन्त्र लिई बगेथें, | |
− | + | जहाँ छ माटो ! | |
− | + | म एक निर्मल पछाडि ‘कलकल’– | |
+ | ले लिन्छ बाटो ! | ||
− | ट. | + | ट. |
− | + | कहिलेकाहीं किरणको कर ली | |
− | + | कदम छ दुइचर ! | |
− | + | टिपी झलक त्यो बनाऊँ ठेली ! | |
+ | म बग्छुु लाचार ! | ||
− | ठ. त धम्र्म के हो ? सदा पिपासा, | + | ठ. |
− | + | त धम्र्म के हो ? सदा पिपासा, | |
− | + | र त्यसको भाषा, र तृप्ति–आशा ! | |
− | + | अनन्त पाए, घुसेर उरमा, | |
− | + | सँगेटी सब धार | |
+ | निदाउनु एकबार ! | ||
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16:44, 22 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
क.
सङ्घर्षद्धारा मिलेर मन्थन यी स्नायुजाली शिथिल हुनाले
क्या फीँज निकाले !
किरण छरी दी तब कल्पनाले !
लडका–दिलमा रहने कविले धरम निकाले, कथा सँगाले !
ख.
पुजारी डर भो, औ भक्त भो,
अज्ञातलाई अज्ञेय पारी
रचेर मन्दिर, कुँदी बसाले !
अनेक बान्की दिई छिनाले !
ग.
बालक ऋषिका कथा मीठा छन्,
म सुन्छु सुन्छु !
यो कल्पनाको परी जगत्मा,
म रसले घुम्छु म रसले घुम्छु !
सफा छ खोजी विचित्र मीठो,
म मग्न हुन्छु, सतृष्ण हुन्छु !
घ.
बगिरहेको मलाई जल देऊ !
सुकोस्, पुगोस्वा पयोधि दूर !
मलाई केवल समुद्रष्णा तृ
छचल्किएको, ध्वनि प्रचुर !
ङ.
मलाई शङ्का सँगी रहन्छे !
मभित्र थोरै छ भित्रको ज्ञान
तथापि घुम्दो छ नागबेली,
तरङ्ग मेरो, समुद्रको गान !
यता छ लरबर,
उता छ आह्वान !
च.
विदित चिरेर किनार पारी, लगाउँदो छु म फूलबारी !
नभेटिएको,नछोइएको,
प्रवाहको तर प्राणछ जारी !
छ.
म गर्तमा गै, "समुद्र छैन”
भनें बराबर, अडी शिथिल प्राण !
बराबर निस्कें, नभेटिए त्यो,
मीठो छ भन्दै मनुष्यनिम्ति
मरुमा कुर्वान !
ज.
म आफूभन्दा अगाडि खोज्छु,
म आफूभन्दा पछाडि गाँस्छु !
म जलहरुमा झझल्किएको
सतृष्णताको गति मिठास छु !
झ.
यहाँ छवि छ, वहाँ छाया,
झिमिक झिमिकमा धधप्प, झप्प !
जो भेटिएको त्यहीं अडेर
यही हो भन्ने हठ प्रदर्शन
म लिन्न,
बग्छु, भजी अलभ्य !
ञ.
‘फटिक’ को मन्त्र लिई बगेथें,
जहाँ छ माटो !
म एक निर्मल पछाडि ‘कलकल’–
ले लिन्छ बाटो !
ट.
कहिलेकाहीं किरणको कर ली
कदम छ दुइचर !
टिपी झलक त्यो बनाऊँ ठेली !
म बग्छुु लाचार !
ठ.
त धम्र्म के हो ? सदा पिपासा,
र त्यसको भाषा, र तृप्ति–आशा !
अनन्त पाए, घुसेर उरमा,
सँगेटी सब धार
निदाउनु एकबार !