"जो कहा नही गया / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया । | है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया । | ||
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उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई, | उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई, | ||
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सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई, | सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई, | ||
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बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई। | बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई। | ||
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अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति : | अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति : | ||
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मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई- | मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई- | ||
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फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया। | फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया। | ||
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पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया। | पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया। | ||
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निर्विकार मरु तक को सींचा है | निर्विकार मरु तक को सींचा है | ||
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तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है | तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है | ||
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तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ, | तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ, | ||
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इसी अहंकार के मारे | इसी अहंकार के मारे | ||
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अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ | अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ | ||
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उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया । | उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया । | ||
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इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया । | इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया । | ||
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शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं | शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं | ||
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पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं। | पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं। | ||
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शायद केवल इतना ही : जो दर्द है | शायद केवल इतना ही : जो दर्द है | ||
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वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया। | वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया। | ||
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तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया । | तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया । | ||
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(रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३) | (रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३) |
12:10, 31 जुलाई 2006 का अवतरण
लेखक: अज्ञेय
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है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।
उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,
सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।
अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-
फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।
निर्विकार मरु तक को सींचा है
तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है
तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,
इसी अहंकार के मारे
अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ
उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।
इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही : जो दर्द है
वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।
तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।
(रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)