"लड़ती हुई लड़की / जयप्रकाश त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयप्रकाश त्रिपाठी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 15: | पंक्ति 15: | ||
लड़कियाँ हर सुबह की लौ होती हैं, | लड़कियाँ हर सुबह की लौ होती हैं, | ||
लड़कियाँ वक्त की, शब्द की, अर्थ की, गूँज-अनुगूँज की, | लड़कियाँ वक्त की, शब्द की, अर्थ की, गूँज-अनुगूँज की, | ||
− | मुस्कराती चुप्पियों और पूरी प्रकृति की सबसे खूबसूरत इबारत हैं, | + | मुस्कराती चुप्पियों और पूरी प्रकृति की |
+ | सबसे खूबसूरत इबारत हैं, | ||
ऐसा-वैसा कुछ कभी न कहना किसी लड़की बारे में। | ऐसा-वैसा कुछ कभी न कहना किसी लड़की बारे में। | ||
22:15, 20 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
लड़कियाँ लड़ रही हैं,
रच रही हैं दुनिया को,
सब कुछ सँवार रही हैं लड़कियाँ,
कोई नहीं पहुँच पाता उनकी उड़ानों के आखिरी सिरे तक,
लड़कियाँ हर समय की रंग हैं,
लड़कियाँ हर सुबह की लौ होती हैं,
लड़कियाँ वक्त की, शब्द की, अर्थ की, गूँज-अनुगूँज की,
मुस्कराती चुप्पियों और पूरी प्रकृति की
सबसे खूबसूरत इबारत हैं,
ऐसा-वैसा कुछ कभी न कहना किसी लड़की बारे में।
लड़किया गाँव की, शहर की, आँगन की, स्कूल की,
राह की, रात-दिन की,
न हों तो खाली और गूँगी हो जाती है हँसी-ख़ुशी
दुख-सुख बोलचाल की दुनिया,
लड़कियाँ कहीं दूर से आती हुई हँसी की तरह बजती हैं रोज़-दिन,
उस शायर ने भी कहा था एक दिन कि..
वह घर भी कोई घर है जिसमें लड़कियाँ न हों।
लड़कियाँ जब आँखें झपकाती हैं,
चाँद की खिड़कियाँ खोलती हैं,
पूरब की किरणों में महकती हैं,
पश्चिम को अगले दिन के लिए आश्वस्त करती हैं,
केसर की तरह पुलकती हैं,
आईने की आत्माओं में प्रतिबिम्बित होती हैं,
अन्तस को गहरे कहीं छू-छूकर भाग जाती हैं,
सब-कुछ सुनती-सहती और गीतों की तरह गूँजती रहती हैं।
आँसुओं की तरह बरस कर भी
इन्द्रधनुषाकार पूरे क्षितिज पर छा जाती हैं,
आँख मून्दकर युगों का गरल पी लेने के बाद
झूम-झूम कर, चूम-चूम कर नाचती हैं,
ज़रा-ज़रा-से इशारों पर कटीली वर्जनाओं,
लक्ष्मण रेखाओं के आरपार
ज़ोर-ज़ोर-से हँसती-खिलखिलाती हैं लड़कियाँ।
आत्मा के रस में, अपार संज्ञाओं से भरे संसार में,
सन्नाटे की चौखट पर, शोर की सिराओं में,
संग-संग चलती हैं, होती हैं लड़कियाँ,
साँसों में, निगाहों में, बून्दों और मोतियों में,
सादगी की गन्ध और शाश्वत सजावटों में,
ऊँची-ऊँची घास की फुनगियों पर,
ग्लेशियर की दूधिया परतों में
कितने तरह से होती हैं लड़कियाँ।
दिशाओं से पूछती हैं और आगे बढ़ जाती हैं,
हवाओं से हँस-हँस कर बतियाती हैं
और चारों तरफ फैल जाती हैं लड़कियाँ,
जाने कितनी तरह से, जाने कितनी-कितनी बार
रोज़ सुबह-शाम दिन भर चाँद-सितारों के सिरहाने तक।
ये हैं समय के पहले से समय के बाद तक के लिए
हमारी अमोल निधियाँ,
हमारी अथाह स्मृतियाँ, हमारे सानेट और चौपाइयाँ,
हमारे दोहा-छन्द-कवित्त,
हमारी समस्त चेतना की शिराएँ,
हमारी बहुरूपिया अवास्तविकताओं की सबसे विश्वसनीय साक्षी
हम-सब की लड़कियाँ.
सोचता हूँ कितना लिखूँ, लिखता ही रहूँ
इनके लिए, इन लड़कियों के लिए.
शायद कभी न पूरी हो सके
लड़कियों पर लिखी कोई भी कविता !