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दोहे / जयप्रकाश त्रिपाठी

12,825 bytes added, 17:57, 24 नवम्बर 2017
मन्त्रमुग्ध अमराइयाँ, चहक-महक से गाँव,
मंथर-मंथर फिर रहा मौसम ठाँव-कुठाँव।
 
ढोल सुहावन अर्श के, टूटे-फूटे फ़र्श।
करनी में हैं टकाभर, कथनी में आदर्श।।
 
महामहिम, महराज हैं, जन-जन के सिरमौर ।
कथनी में कुछ और हैं, करनी में कुछ और ।।
 
आधी उमर गुजर गई गिनते-गिनते साल।
रहे ढाक के पात दिन, रोज़ हाल बेहाल।।
 
सुबह गई, फिर दोपहर, कतरा-कतरा शाम ।
वैसा-का-वैसा गया पूरा दिन अविराम ।।
 
जब-जब बीते वक़्त को जोड़ा सूद समेत।
सुख के क्षण-प्रतिक्षण रहे मुट्ठी-मुट्ठी रेत।।
 
चिन्तन करते रह गए, बड़े-बड़े सिरमौर,
मुकुट माथ से ले उड़े सधे हुए चितचोर।।
 
थका नहीं, पलभर थमा, कोई हार-न-जीत।
जीवन गाता रह गया दुखियारों के गीत।।
 
कालखण्ड को 'अलविदा' भले कहें धनराज।
होरी-धनिया की कथा जस-की-तस है आज।।
 
जान न पाई ज़िन्दगी, होती रही विभक्त ।
कैसे सोखा वक़्त ने कतरा-कतरा रक्त ।।
 
जीवन भर सुनता रहा, सबके बोल-कुबोल।
जान न पाया आज तक किसका, कितना मोल।।
 
उफन रही काली नदी, या गंगा के घाट।
सब समुद्र के विलय में मारें ऊँचे ठाट।।
 
ऐसे भी मुझको मिले रिश्ते हाथोहाथ।
पल में गलबहियाँ दिया, पल में किया अनाथ।।
 
क्या काँटे की दोस्ती, क्या काँटे का घात।
बड़े-बड़े दरबार में, छोटी-छोटी बात।।
 
हवा चली उल्टी मगर नहीं हुआ निरुपाय।
शब्दों में हँसते रहे लहरों के पर्याय।।
 
थमते-थमते शोरगुल, रात हो गई मौन।
जिसको जाना था, गया, रोक सका है कौन।।
 
समय-चक्र के व्यूह में हँसी-ख़ुशी के ठाँव।
चलते-चलते खो गए, और थक गए पाँव ।।
 
सबके हिस्से की ख़ुशी करके अपने नाम।
घर बैठे वो भज रहे, हरदम चारो धाम ।।
 
फटी रजाई चिन्दी-चिन्दी आई गनगन जाड़।
माई, भाई, बहिनी, बाबू सबके काँपे हाड़।।
 
रातोदिन माथा चकराए, कैसे चुके उधार।
ठिठुरे-ठिठुरे राम खेलावन रोएँ पुक्का फाड़।।
 
डर के मारे सूरज की भी हालत हुई ख़राब।
जाने कब से छिपा हुआ लेकर बादल की आड़।।
 
अलाव सबके अपने-अपने, चिकनी-चुपड़ी बात।
भाड़ में जाए ऐसी दुनिया 'जिनगी' हुई पहाड़।।
 
नँगा करने पर आमादा महँगाई की मार।
निहुरे-निहुरे ऊँट की चोरी कब तक करें जुगाड़।।
 
फटे कलेजा, रोवाँ-रोवाँ फूटे सारी रात।
मुँह ढाँकें तो पाँव उघारे, गमछा भी लाचार।।
 
पछुवा भी पीछे पड़ी जैसे धोकर हाथ।
कूटे ठांव-कुठाँव सब, धरे पछाड़-पछाड़।।
 
पल में बरसे नेहभर, पल में हो पाषाण।
रीझे-रीझे रात-दिन छुई-मुई मन-प्राण।।
 
काजल-काजल कोठरी, कोरे-कोरे दाग।
पानी-पानी ज़िन्दगी, रोज़ बटोरे आग।।
 
एक-अकेले चल पड़ा, कोई साथ-न-सँग।
मन का मौसम हो रहा क्षण-प्रतिक्षण बदरँग।।
 
अन्धी-अन्धी मंज़िलें, बहरी-बहरी राह।
चलते-चलते थक गए, निकली मुँह से आह।।
 
लोकतन्त्र की जान हम, हैं संसाधन हीन।
वे लूटें, फूलें-फलें और बजाएँ बीन।।
 
डसने को आज़ाद वे सिर पर ओढ़े ताज।
साँप-सँपेरों के लिए कैसा जँगल-राज।।
 
झूठी-झूठी जम्हूरियत, कुर्सी-कुर्सी ठाट,
टूटा-टूटा आदमी, जोह रहा है बाट।।
 
वतनपरस्तों के लिए होश, न कोई जोश,
राष्ट्रभक्ति का स्वाँग कर झूमें वतनफ़रोश।।
 
ताली-ताली मसखरी, ख़ाली-ख़ाली जेब ।
लाख टके की बात में सौ-सौ जाल-फरेब ।।
 
चादर ताने सो रहे लोकतन्त्र के भूत।
लग्गी से पानी पियो, बने रहो अवधूत ।।
 
विप्र-मौलवी मस्त हैं खोले पड़े दुकान।
फूटी-फूटी कौड़ियाँ खेल रहे यजमान ।।
 
कौवों के दरबार में काँव-काँव बौछार।
जितने हैं इस पार में, उतने हैं उस पार ।।
 
टेक अँगूठा बन गया मन्त्री सबसे खास।
रोज़ी को मोहताज है बाबू एमए पास ।।
 
घाट-घाट सूखी नदी, जँगल-जँगल आग।
कैसे खिले वसन्त ऋतु, कैसे खेलें फाग।।
 
रास-रँग करने लगे शब्द-शब्द में इन्द्र।
जन-गण-मन है लापता, सिसक रहे कविवृन्द।।
 
चादर ओढ़े धूप की चिन्दी-चिन्दी आग।
मौसम फूँ-फूँ कर रहा, जैसे काला नाग।।
 
चिरई-चुनमुन लापता, मौसम की अन्धेर।
लगी सुलगने दोपहर, खाली हैं मुण्डेर।।
 
बही पसीने की नदी, सुलगे-सुलगे घाट।
दूर-दूर तक लापता, हवा-लहर के ठाट ।।
 
आसमान से आ रही अँगारों की खेप।
मेहनतकश के देहभर लू-लपटों का लेप ।।
 
पारे चढ़े हुज़ूर के, ताप चढ़ा आकाश।
रुपया-पैसा हो गया, सबका माई-बाप ।।
 
लिए कटोरे फिर रहे, भूखे-दूखे लोग।
उड़ा रहे सम्भ्रान्त पचपन-छप्पन भोग।।
 
दाढ़ी में तिनका फँसा ऐसा औने-पौन।
भाई जी के वेश में हुआ कसाई मौन।।
 
पँजा खुजलाने लगा, फड़की बाईं आँख।
साख छोड़कर उल्लुओं ने फैलाई पाँख।।
 
बेमौसम बरसात से टर्र-टर्र चहुँ ओर।
पूँछ नचाए गिलहरी, पँख नचाएँ मोर।।
 
चित्रकूट के घाट पर मित्र उधर बेहाल।
इधर पुत्र की चाल से मैडम का मुँह लाल।।
 
धीरे-धीरे खुल रही गठबन्धन की गाँठ।
घाट-घाट के चौधरी लगे बिछाने खाट।।
 
काका लगे अलापने थर्ड फ्रण्ट का राग।
काकी ने भी कह दिया जाग मछन्दर जाग।।
 
हिन्दी हिन्दी सब करें, हिन्दी पढ़े न कोय।
जो कोई हिन्दी पढ़े, जग जैसा घर होय।।
 
सबकी भाषा-बोलियाँ हैं सम्मानित-नेक।
दो बहनों की तरह हैं, हिन्दी-उर्दू एक।।
 
वैमनस्य क्यों स्वयं में, अतिथि लिखें या गेस्ट।
जन-गण-मन की दृष्टि में हर भाषा हो श्रेष्ठ।।
 
मनुष्यता या राष्ट्र से नहीं बड़ी तकरार,
बहुभाषा, बहु बोलियाँ भारत का शृंगार।।
 
चक्की में पिसता रहा दाना-दाना वक़्त।
आँख-आँख रिसता रहा दूखा-सूखा रक्त।।
 
ठगा विश्व-बन्धुत्व है, अद‍भुत्त युद्धम-युद्ध।
बड़े-बड़ों में फिर कलह, बच्चा-बच्चा क्रुद्ध।।
 
किसके दिल में प्यार है, किसके दिल में खोट।
सच सबको मालूम है, मत कर ख़ुद पर चोट।।
 
घर की भूँजी भाँग का लगा रहे हो रेट।
बम, गोला, बारूद से भरता किसका पेट।।
 
अपने घर का हाल भी रहा नहीं अनुकूल।
कृपया ऐसे वक़्त में बकें न ऊल-जुलूल।।
 
मानवता के दुश्मनों ! भरो न यूँ हुँकार।
खून-खून हो जाएगा यह सुन्दर संसार।।
 
शून्य-शून्य सा शेष क्यों, रहा न रत्ती साथ।
जब-जब खोलीं मुट्ठियाँ ख़ाली-ख़ाली हाथ।।
 
गठरी लादे झूठ की चीख़ रहे दिन-रात ।
ओछी-ओछी हरकतें, ऊँची-ऊँची बात ।।
 
सत्यमेव जय बोलकर, बात-बात पर घात ।
छप्पन भोग उड़े उधर, इधर पेट पर लात ।।
 
रट्टू-टट्टू हर तरफ, बाँच रहे दस-पाँच ।
वोट से पहले देखिए बड़े नोट का नाच ।।
 
लोकतन्त्र में नौकरी का भी बन्दोबस्त।
वेतनभोगी सांसद और विधायक मस्त।।
 
एक-एक दिन ज़िन्दगी, जैसे सौ-सौ साल ।
जोड़ रहे सब्ज़ी-नमक-चावल-आटा-दाल ।।
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