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"बादल रोया (हाइकु) / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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बादल रोया
 
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धरती भी उमगी
 
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शायद ये कुहासा
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यही प्रत्याशा ।
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फुदकती गौरैया
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शुभ नहीं ये।
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महाकाव्य की पौध
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लुनता कवि।
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दूब-धान है आया
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लोक जीवन ।
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परंपराएँ कभी
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बचोगे तभी।
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18:27, 9 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

1
बादल रोया
धरती भी उमगी
फसल उगी।
2
क्यों तू उदास
दूब अभी है ज़िंदा
पिक कूकेगा।
3
इर्द गिर्द हैं
साँसों की ये मशीने
इंसान कहाँ !
4
कुछ कम हो
शायद ये कुहासा
यही प्रत्याशा ।
5
सहम गई
फुदकती गौरैया
शुभ नहीं ये।
6
धूप के पाँव
थके अनमने से
बैठे सहमे।
7
लोक रोपता
महाकाव्य की पौध
लुनता कवि।
8
स्वागत हुआ
दूब-धान है आया
लोक जीवन ।
9
मरने न दो
परंपराएँ कभी
बचोगे तभी।