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"मुक्तक / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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मनुज बनकर दानवों की ओ  वकालत करने वालों !
 
मनुज बनकर दानवों की ओ  वकालत करने वालों !
 
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥'''
 
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥'''
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'''सूखा खेत बरसती बदली हूँ मैं'''
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आसुरी शक्तियों पर बिजली हूँ मैं ।
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निकलने तो दीजिए मुझे नीड़ से
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ये मत पूछना कि क्यों मचली हूँ मैं ॥
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'''फूल -पाँखुरी भी हूँ , तितली हूँ मैं'''
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उमड़े तूफ़ानों से निकली हूँ मैं ।
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असीम अम्बर में लहराने तो दो
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ये कभी मत कहना कि पगली हूँ मै॥
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'''गिरी , हौसलों से सँभली हूँ मैं'''
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तभी तो यहाँ तक निकली हूँ मैं ।
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शिखर पर पताका फहराने  दो
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अभी तो बस घर से चली हूँ मैं ॥
 
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07:14, 16 मई 2018 का अवतरण

1
रेत को मुट्ठी में भर करके हम फिसलने नहीं देते ।
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फ़ख्र तारों पर है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
2
बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च पर निकलते हो ॥
3
सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
मनुज बनकर दानवों की ओ वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥
4
सूखा खेत बरसती बदली हूँ मैं
आसुरी शक्तियों पर बिजली हूँ मैं ।
निकलने तो दीजिए मुझे नीड़ से
ये मत पूछना कि क्यों मचली हूँ मैं ॥
5
फूल -पाँखुरी भी हूँ , तितली हूँ मैं
उमड़े तूफ़ानों से निकली हूँ मैं ।
असीम अम्बर में लहराने तो दो
ये कभी मत कहना कि पगली हूँ मै॥
6
गिरी , हौसलों से सँभली हूँ मैं
तभी तो यहाँ तक निकली हूँ मैं ।
शिखर पर पताका फहराने दो
अभी तो बस घर से चली हूँ मैं ॥