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"गत्ते की गांठ / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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संवेदना,
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मेरी देह के अवयव एक से नहीं
मन की सहज व्यथा है।
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"आह से उपजा गान" है।
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यह न पैदा की जा सकती,
+
न मिटाई जा सकती है।
+
हाँ,
+
कभी-कभी परिस्थितियाँ,
+
किंकर्तव्यविमूढ़ बना जाती हैं।
+
  
पीछे की स्मृति,
+
इन दिनों...
आगे की चिंता,
+
बोध के पहाड़ों का ठोस ठहराव
कोष और सैन्यबल के व़गैर,
+
ढ़हकर बह जाना चाहता है
घोषित राजा को क्षण-क्षण,
+
कतरा-कतरा टूटकर
दायित्वबोध करानेवाली
+
मिल जाना चाहता है नदी की कलकल में
लोकतांत्रिक प्रजा।
+
तुर्रा ये कि
+
त्रुटियों के हिसाब लेखन हेतु,
+
चित्रगुप्तों की बारात।
+
  
अघोषित और दीर्घकालीन संघर्ष
+
किंतु तलछट की काई उपटकर
व्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने देता।
+
पानी के साथ बह रही है ...इन दिनों
पत्थर की चोट से घिसा,
+
जो व्यक्ति, व्यक्ति ही न रहा,
+
उसके नाम के पीछे,
+
"संवेदनशील" विशेषण की लालसा क्यों?
+
  
तभी तो,
+
रोज रात मेरे पैताने बैठ
जब तथ्यों से परे।
+
तुम जो मुझे यूं घूरते रहते हो.....
वाहियात मानसिकता का लबादा पहन।
+
क्या मेरी जिहन से तत्व चुराने आए हो ?
भेंड़चाल में जबरन शामिल करने को आतुर।
+
खींसे निपोरता बहेलिया
+
आडम्बर की ओट से,
+
विषसिक्त बाणों के प्रहार
+
कोमल गात पर करते हैं।
+
रक्तश्राव और उससे होनेवाली
+
असह्य पीड़ा की चिंता किए बगैर,
+
सुई की नोंक चुभो चुभोकर,
+
नैतिकता से हँसकर बात करते
+
चेहरे के होंठ सिलते हैं।
+
  
ऐसे क्रांतिक क्षणों में अक्सर,  
+
आत्मा का रंग इन दिनों नीला पड़ा है
विद्रूपता अपनी सफलता पर मुसकाती है।
+
 
और संवेदनशीलता!  
+
ख्वाब में तना शामियाना
किसी अज्ञात पते पर,
+
छानकर गिराता रहता है किरणों का ढ़ेर
अकर्मण्य भाव से क्रमशः,
+
कि ज्यों खपरैल से गिरती रहती है रोशनी
निस्तेज होती चली जाती है।
+
 
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कहा था....
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कि पूरे सौरमंडल की यात्रा करनी थी तुम्हें मेरे साथ
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एक-एक चीज़ छूकर देखनी थी ...खुद से
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एक मैं ही हतभागी तो नहीं
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अक्षरों की पिटती लकीर के साक्षी हैं ....
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ये दरख्त , हवा , पानी , धूल , किरणें , रोशनी
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बताया मुझे
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कि तुम्हें कहीं जाना तो था ही नहीं
 +
 
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सुनो!
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मुझे वक्त की बरबाद खेती समेटनी है
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कि हाट अब अपने अंतिम पड़ाव पर  
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करवट लेता चाहता है
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मेरी नज़्म!
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मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं
 
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13:01, 3 जुलाई 2018 के समय का अवतरण

मेरी देह के अवयव एक से नहीं

इन दिनों...
बोध के पहाड़ों का ठोस ठहराव
ढ़हकर बह जाना चाहता है
कतरा-कतरा टूटकर
मिल जाना चाहता है नदी की कलकल में

किंतु तलछट की काई उपटकर
पानी के साथ बह रही है ...इन दिनों

रोज रात मेरे पैताने बैठ
तुम जो मुझे यूं घूरते रहते हो.....
क्या मेरी जिहन से तत्व चुराने आए हो ?

आत्मा का रंग इन दिनों नीला पड़ा है

ख्वाब में तना शामियाना
छानकर गिराता रहता है किरणों का ढ़ेर
कि ज्यों खपरैल से गिरती रहती है रोशनी

कहा था....
कि पूरे सौरमंडल की यात्रा करनी थी तुम्हें मेरे साथ
एक-एक चीज़ छूकर देखनी थी ...खुद से

एक मैं ही हतभागी तो नहीं

अक्षरों की पिटती लकीर के साक्षी हैं ....
ये दरख्त , हवा , पानी , धूल , किरणें , रोशनी
बताया मुझे
कि तुम्हें कहीं जाना तो था ही नहीं

सुनो!
मुझे वक्त की बरबाद खेती समेटनी है
कि हाट अब अपने अंतिम पड़ाव पर
करवट लेता चाहता है

मेरी नज़्म!
मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं