भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पनघट भी प्यासा है(माहिया) /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('Category:हाइकु <poem> 31 ये जीवन था सोना , किसकी नज़र लगी अब मा...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
09:03, 10 अगस्त 2018 के समय का अवतरण
31
ये जीवन था सोना ,
किसकी नज़र लगी
अब माटी हर कोना ।
32
परिभाषा अपनों की
समझ न पाए थे
पीड़ा हम सपनों की ।
33
तू सपने में आया
बिन बात रुलाना
हमको न ज़रा भाया ।
34
पनघट भी प्यासा है
गर ओ बूँद मिले
बचने की आशा है ।
35
जो मीत हमारे थे
धोखा देने में
दुश्मन भी हारे थे ।
36
बिन मौत न हम मरते
तुमने दे डाले
वे घाव नहीं भरते ।
37
जीवन था चन्दन-वन
ऐसी आग लगी
झुलसा है तन औ मन ।
38
क्या रूप निराले हैं
वेश धरे उजले
मन इनके काले हैं ।
39
उपदेश सुनाते हैं
खुद दुष्कर्म करें
जग को बहकाते हैं ।
40
जनता बेहाल हुई
गुण्डों की टोली
अब मालामाल हुई ।
41
पर निश-दिन कतरे हैं
सच्चे लोग यहाँ
लगते अब खतरे हैं ।