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<poem>
 
वे अगले पचास बरस तक मेरे सपनों में आते रहे
 
वे मरे नहीं थे जैसा कि लोग समझते थे
 
अलबत्ता वे अब भी अपनी कविताएँ लिख रहे थे
 
यह सब मैंने सपने में देखा
 
फिर मैं नीन्द से जागा और कुछ समझ नहीं पाया
 
  
अब क्या बताऊँ वे क्या लिखते रहे थे, क्या छूट गया पीछे
 
एक बुजुर्ग कवि का ऋण जैसे कि सारी कायनात का ऋण
 
तो शायद मुझे ही अब उन अधूरी कविताओं को पूरा करना होगा
 
मुझे चुरा लेनी होंगी अग्रज कवि की भेदभरी पंक्तियाँ
 
जैसे कि आप उठा लेते हैं पंक्तियाँ
 
चाँद से, आकाश से, या दरख्तों से
 
और वे कुछ नहीं कहते
 
शायद मुझे ही ढूँढ़नी होंगी तमाम शोरगुल के बीच
 
उनकी ख़ामोशियाँ
 
और तमाम चुप्पियों के बीच
 
उनकी कोई अनसुनी चीख़?
 
वे तो चले उन रास्तों पर
 
जहाँ सन्देह थे केवल सन्देह और सवाल
 
और आश्वासन कोई नहीं
 
और वे जानते थे कि सच कहने से ज़्यादा ज़रूरी है
 
सच कहने की ज़रूरत का एहसास?
 
 
मैं नींद से हड़बडा कर जागूँगा
 
इस तरह तीस बरस बाद रात दो बजे
 
मैं एक गहरी निद्रा से जागूँगा
 
मैं चारपाई, बिस्तर, कोठरी, कुर्सियों, बरतन-भाण्डों,
 
बाड़ों, बरामदों, मान-अपमान, सुख-दुख, स्वार्थ, तारीखों
 
और मंसूबों और व्याकरण से बाहर निकलूँगा
 
रात दो बजे गझिन अन्धकार में
 
मैं अपने अग्रज कवि के रास्तों पर टटोलते हुए कुछ क़दम बढ़ाऊँगा
 
लेकिन फिर घबरा कर जल्दी से अपने अहाते में लौट आऊँगा
 
भारी-भारी साँसों के साथ
 
इस तरह
 
इस तरह याद करता हूँ मैं आधी सदी पहले गुज़रे
 
एक दिवंगत कवि को
 
उनकी कुछ अधूरी रह गई कविताओं को
 
</poem>
 

19:57, 29 अक्टूबर 2018 का अवतरण