"सैयां बहिंया न गहो/फाग" के अवतरणों में अंतर
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− | सैयां बहिंया न गहो गलि गलियारे हो, सैयां बहियां न गहो गलि हो॥टेक॥ | + | सैयां बहिंया न गहो गलि गलियारे हो, <br> |
− | गलि गलियारे शर्म लगत है, गलि गलियारे शर्म लगति है, ले चलि महल अटारे हो,सैयां बहियां न गहो गलि हो॥१॥ | + | सैयां बहियां न गहो गलि हो॥टेक॥<br> |
− | डेल डिलारे कसक लगति है,डेल डिलारे कसक लगति है, ले चलि खेत खितारे हो,सैयां बहियां न गहो गलि हो॥२॥ | + | |
− | नदी के भीतर ऊब लगति है,नदी के भीतर ऊब लगति है, ले चलि नदी किनारे हो,सैयां बहियां न गहो गलि हो॥३॥ | + | गलि गलियारे शर्म लगत है, <br> |
− | काल कर्मगति संग चलति है,काल कर्म गति संग चलति है, ले चलि गुरु सहारे हो,सैयां बहियां न गहो गलि हो॥४॥ <br> | + | गलि गलियारे शर्म लगति है, <br> |
+ | ले चलि महल अटारे हो,<br> | ||
+ | सैयां बहियां न गहो गलि हो॥१॥ <br><br> | ||
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+ | डेल डिलारे कसक लगति है,<br> | ||
+ | डेल डिलारे कसक लगति है, <br> | ||
+ | ले चलि खेत खितारे हो,<br> | ||
+ | सैयां बहियां न गहो गलि हो॥२॥ <br><br> | ||
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+ | नदी के भीतर ऊब लगति है,<br> | ||
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+ | ले चलि नदी किनारे हो,<br> | ||
+ | सैयां बहियां न गहो गलि हो॥३॥ <br><br> | ||
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+ | काल कर्मगति संग चलति है,<br> | ||
+ | काल कर्म गति संग चलति है, <br> | ||
+ | ले चलि गुरु सहारे हो,<br> | ||
+ | सैयां बहियां न गहो गलि हो॥४॥ <br><br> | ||
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(उपरोक्त भाग भदावर क्षेत्र में होली के दहन के बाद में गाया जाने वाला गीत है,इस फ़ाग को गाने के तोड में पहले शरीर रूपी सुन्दरी अपने प्रीतम ईश्वर से कहती है,कि मुझे गलियों में भक्ति करने के लिये मत कहो,गलियों में भक्ति करते हुये मुझे शर्म आती है,दूसरी पंक्ति में कहा है कि जंगल बीहड और पत्थरों में जाकर मुझे भक्ति करने को मत कहो,वहां पर मुझे भूख प्यास और शरीर में सर्दी गर्मी बरसात की चोट लगती है,एक विस्तृत क्षेत्र में ले कर चलो,जहां मै मौज से भक्ति कर सकूं,तीसरी पंक्ति में नदी रूपी संगति जो लगातार आगे से आगे चली जा रही हो,उसके साथ मुझे मत जोडो उसके साथ चलने में मुझे दूसरी प्रकार की भक्ति सम्बन्धी बातें उबाती है,मुझे समझ में नहीं आती है,इसलिये किसी एकान्त किनारे पर लेकर चलो,चौथी पंक्ति में कहा है कि सबके साथ नही चलने पर किया भी क्या जा सकता है,समय जो करवाता है,उसे करना पडता है,पीछे जो हम करके आये है,उसका भुगतान तो लेना ही पडेगा,इन सबके बाद जो जीवन की गति मिली है,उसके अनुसार चलना तो पडेगा ही,इसलिये किसी गुरु की शरण में लेकर चलो,जिससे भक्ति करने का उद्देश्य तो गुरु के द्वारा समझने को मिले.) <br> | (उपरोक्त भाग भदावर क्षेत्र में होली के दहन के बाद में गाया जाने वाला गीत है,इस फ़ाग को गाने के तोड में पहले शरीर रूपी सुन्दरी अपने प्रीतम ईश्वर से कहती है,कि मुझे गलियों में भक्ति करने के लिये मत कहो,गलियों में भक्ति करते हुये मुझे शर्म आती है,दूसरी पंक्ति में कहा है कि जंगल बीहड और पत्थरों में जाकर मुझे भक्ति करने को मत कहो,वहां पर मुझे भूख प्यास और शरीर में सर्दी गर्मी बरसात की चोट लगती है,एक विस्तृत क्षेत्र में ले कर चलो,जहां मै मौज से भक्ति कर सकूं,तीसरी पंक्ति में नदी रूपी संगति जो लगातार आगे से आगे चली जा रही हो,उसके साथ मुझे मत जोडो उसके साथ चलने में मुझे दूसरी प्रकार की भक्ति सम्बन्धी बातें उबाती है,मुझे समझ में नहीं आती है,इसलिये किसी एकान्त किनारे पर लेकर चलो,चौथी पंक्ति में कहा है कि सबके साथ नही चलने पर किया भी क्या जा सकता है,समय जो करवाता है,उसे करना पडता है,पीछे जो हम करके आये है,उसका भुगतान तो लेना ही पडेगा,इन सबके बाद जो जीवन की गति मिली है,उसके अनुसार चलना तो पडेगा ही,इसलिये किसी गुरु की शरण में लेकर चलो,जिससे भक्ति करने का उद्देश्य तो गुरु के द्वारा समझने को मिले.) <br> | ||
− | + | रचयिता- रामेन्द्र सिंह भदौरिया (ज्योतिषाचार्य) ३७ पंचवटी कालोनी जयपुर ३०२००६ <br> | |
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18:31, 7 अगस्त 2008 का अवतरण
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सैयां बहिंया न गहो गलि गलियारे हो,
सैयां बहियां न गहो गलि हो॥टेक॥
गलि गलियारे शर्म लगत है,
गलि गलियारे शर्म लगति है,
ले चलि महल अटारे हो,
सैयां बहियां न गहो गलि हो॥१॥
डेल डिलारे कसक लगति है,
डेल डिलारे कसक लगति है,
ले चलि खेत खितारे हो,
सैयां बहियां न गहो गलि हो॥२॥
नदी के भीतर ऊब लगति है,
नदी के भीतर ऊब लगति है,
ले चलि नदी किनारे हो,
सैयां बहियां न गहो गलि हो॥३॥
काल कर्मगति संग चलति है,
काल कर्म गति संग चलति है,
ले चलि गुरु सहारे हो,
सैयां बहियां न गहो गलि हो॥४॥
(उपरोक्त भाग भदावर क्षेत्र में होली के दहन के बाद में गाया जाने वाला गीत है,इस फ़ाग को गाने के तोड में पहले शरीर रूपी सुन्दरी अपने प्रीतम ईश्वर से कहती है,कि मुझे गलियों में भक्ति करने के लिये मत कहो,गलियों में भक्ति करते हुये मुझे शर्म आती है,दूसरी पंक्ति में कहा है कि जंगल बीहड और पत्थरों में जाकर मुझे भक्ति करने को मत कहो,वहां पर मुझे भूख प्यास और शरीर में सर्दी गर्मी बरसात की चोट लगती है,एक विस्तृत क्षेत्र में ले कर चलो,जहां मै मौज से भक्ति कर सकूं,तीसरी पंक्ति में नदी रूपी संगति जो लगातार आगे से आगे चली जा रही हो,उसके साथ मुझे मत जोडो उसके साथ चलने में मुझे दूसरी प्रकार की भक्ति सम्बन्धी बातें उबाती है,मुझे समझ में नहीं आती है,इसलिये किसी एकान्त किनारे पर लेकर चलो,चौथी पंक्ति में कहा है कि सबके साथ नही चलने पर किया भी क्या जा सकता है,समय जो करवाता है,उसे करना पडता है,पीछे जो हम करके आये है,उसका भुगतान तो लेना ही पडेगा,इन सबके बाद जो जीवन की गति मिली है,उसके अनुसार चलना तो पडेगा ही,इसलिये किसी गुरु की शरण में लेकर चलो,जिससे भक्ति करने का उद्देश्य तो गुरु के द्वारा समझने को मिले.)
रचयिता- रामेन्द्र सिंह भदौरिया (ज्योतिषाचार्य) ३७ पंचवटी कालोनी जयपुर ३०२००६