"सुबह का आना / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में | जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में | ||
− | दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है | + | दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है कहीं कोई |
दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली | दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली | ||
दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी। | दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी। | ||
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और कभी भी नहीं देख पाऊँगा तुम्हें | और कभी भी नहीं देख पाऊँगा तुम्हें | ||
− | ओ भोर ! तुम आए अन्ततः, जैसे आया हो पक्षी ऋतुराज का | + | ओ भोर ! तुम आए अन्ततः, |
+ | जैसे आया हो पक्षी ऋतुराज का | ||
जैसे ही तुम आए घर नहा गया उजाले से | जैसे ही तुम आए घर नहा गया उजाले से | ||
और खिड़की पर लहक उठी फलों से लदी शाख | और खिड़की पर लहक उठी फलों से लदी शाख | ||
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कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्ष | कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्ष | ||
चहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीत | चहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीत | ||
− | फिर से आसमान आसमान-सा, धरती | + | फिर से आसमान आसमान-सा, धरती-सी, |
+ | न कहीं कोई हौवा, न कहीं कोई बिजूका | ||
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+ | वाह, जीवित हूँ मैं और हर्षित हैं मेरे बच्चे | ||
+ | फिर से पहली-सी ताज़ा है घास | ||
+ | चारागाहों में हैं मधुमक्खियों के झुण्ड के झुण्ड | ||
+ | धवल वस्त्रों में सजे-बिजे खड़े हैं पहाड़ | ||
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+ | पेड़ यार-दोस्तों से घिरे खड़े हैं मकान, | ||
+ | सबकुछ व्यवस्थित है, लयबद्ध, नियमानुसार | ||
+ | घर में — सबकुछ है ठौर-ठिकाने | ||
+ | वाटिका में इठला रही सब्ज़ियों की कतार | ||
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+ | तुम, ओ रक्त-हृदय पाखी ! सहजता से आते हो | ||
+ | पार कर हरे-भरे चिनारों की कतार | ||
+ | रात पूँछ फटकारती है दूर तक सुनहरी | ||
+ | और चीज़ों को लौटाती है ऐन्द्रिक अनुभूति | ||
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+ | तुम आए हो तो लौट आई, जग उठी आकाँक्षा | ||
+ | शब्द हुए सम्पृक्त अर्थों से, | ||
+ | फिर थाम ली मैंने सीधे हाथ में लेखनी | ||
+ | नया नवल हो उठा सबकुछ आलोकित विश्व में | ||
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+ | मेरे गीत हैं, जैसे उड़ान पर निकले हर्षोन्मत्त पाखी | ||
+ | कविता है मेरी उमँगों से लबरेज़ नीलवर्णी चिदइया-सी | ||
+ | उमड़ती हैं नई पँक्तियाँ रुनझुन-रुनझुन करती हैं यशोगान | ||
+ | नभ का मेघ का, पृथ्वी का गेहूँ की बाली का । | ||
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+ | एकाकी पनचक्की, शिलाखण्ड और उकाब | ||
+ | पर्व | ||
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'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[सुधीर सक्सेना]]''' | '''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[सुधीर सक्सेना]]''' | ||
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19:09, 1 जून 2019 का अवतरण
कितनी भयावह थी मेरे लिए वह्रात
मुझे लगा कि मुझ पर गिर पड़ी हैं धेरों चट्टानें
धँस गई है मेरे घर में, मुझे चकनाचूर करने के वास्ते
टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ
खिड़की पर जमा हो गए हैं दुनिया भर के खटके
और अलाय-बलाय
बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़
जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी से झपट पड़े मुझ पर
’त्राहि माम् - त्राहि माम्’ — चिल्लाया मैं
जब आफ़तें बरसी मुझ पर तोप के गोलों-सी
मुझे लगा कि मैं ही हूँ गुनहगार,
दोषी हूँ मैं जहाँ-तहाँ निर्दोषों के रक्तपात के लिए
ख़ून से लथपथ है धरती, रक्त से सने हैं खेत और घर
और प्राची में अब कभी फूटेगी नहीं लालिमा
जब कहीं गोली दाग़ी जाती है सत्य के योद्धा पर
होमर या लोर्का के देश में, वह
और कहीं नहीं, सीधे वार करती है
मेरे घर में घुसकर मेरे ही सीने पर
जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में
दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है कहीं कोई
दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली
दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी।
नीन्द आई, पर अचानक मुझे लगा
कि दो काली चीलें मण्डरा रही हैं सिर पर
कितनी लम्बी भयावह थी रात ! भरने लगे थे मेरे ज़ख़्म
उन्हें दुःस्वप्न ने फिर कुरेद दिया रिसने को
पहाड़ों में धमाके हुए, ठाँय गूँजी ज़ोरदार
मानो चट्टानें फट पड़ी हों रौन्दने को
मानो अँट गई हो धरती रक्त और कूड़े के ढेर से
ऐसे में तड़पा मैं बेतरह तुम्हारे लिए भोर !
मेरे लिए इतनी भयावह थी वह रात
मानो प्रकृति ने ही हथियार उठा लिए हों मेरे ख़िलाफ़
भोर ! मुझे लगा मिट जाऊँगा मैं इस घोर अन्धियारे में
और कभी भी नहीं देख पाऊँगा तुम्हें
ओ भोर ! तुम आए अन्ततः,
जैसे आया हो पक्षी ऋतुराज का
जैसे ही तुम आए घर नहा गया उजाले से
और खिड़की पर लहक उठी फलों से लदी शाख
लौट आया मैं अपने आप में, वर्तमान में
तुम आए, भोर ! मानो आया हो फिर से बचपना
कन्धों पर उग से आए सुनहरे पँख
तुमने लौटा दिया मुझे खोया अस्तित्त्व
लौटाई ख़ुशी, मृदुता, लौटाया सँकल्प, लौटाई शक्ति
कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्ष
चहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीत
फिर से आसमान आसमान-सा, धरती-सी,
न कहीं कोई हौवा, न कहीं कोई बिजूका
वाह, जीवित हूँ मैं और हर्षित हैं मेरे बच्चे
फिर से पहली-सी ताज़ा है घास
चारागाहों में हैं मधुमक्खियों के झुण्ड के झुण्ड
धवल वस्त्रों में सजे-बिजे खड़े हैं पहाड़
पेड़ यार-दोस्तों से घिरे खड़े हैं मकान,
सबकुछ व्यवस्थित है, लयबद्ध, नियमानुसार
घर में — सबकुछ है ठौर-ठिकाने
वाटिका में इठला रही सब्ज़ियों की कतार
तुम, ओ रक्त-हृदय पाखी ! सहजता से आते हो
पार कर हरे-भरे चिनारों की कतार
रात पूँछ फटकारती है दूर तक सुनहरी
और चीज़ों को लौटाती है ऐन्द्रिक अनुभूति
तुम आए हो तो लौट आई, जग उठी आकाँक्षा
शब्द हुए सम्पृक्त अर्थों से,
फिर थाम ली मैंने सीधे हाथ में लेखनी
नया नवल हो उठा सबकुछ आलोकित विश्व में
मेरे गीत हैं, जैसे उड़ान पर निकले हर्षोन्मत्त पाखी
कविता है मेरी उमँगों से लबरेज़ नीलवर्णी चिदइया-सी
उमड़ती हैं नई पँक्तियाँ रुनझुन-रुनझुन करती हैं यशोगान
नभ का मेघ का, पृथ्वी का गेहूँ की बाली का ।
एकाकी पनचक्की, शिलाखण्ड और उकाब
पर्व
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना