"मर्यादा / कृष्णा वर्मा" के अवतरणों में अंतर
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+ | कह दिया सखी तूने | ||
+ | तोड़ देती उस रिश्ते को | ||
+ | तू बँधती इस बंधन में | ||
+ | तो जान पाती | ||
+ | आसान नहीं होता | ||
+ | मर्यादा की गिरहों को खोलना । | ||
+ | दबानी पड़ती है चाहतें | ||
+ | दायित्व की चट्टान तले | ||
+ | ख़्वाहिशों को मार कर | ||
+ | होंठों की लरजन पर | ||
+ | उगानी पड़ती है हँसी | ||
+ | और गुनगुनानी पड़ती है पीड़ा | ||
+ | प्रेम गीतों की तर्ज़ में | ||
+ | खारी लहरों को मोड़ना पड़ता है | ||
+ | भीतरी समंदर में | ||
+ | सींचना पड़ता है शब्दों को | ||
+ | आँखों की नमी से | ||
+ | खुशी का भ्रम बनाए रखने को | ||
+ | स्याह मन की कालिख़ | ||
+ | सजानी होती है डोरों पर | ||
+ | मांग में सिंदूर | ||
+ | माथे पर दिपदिपाता कुमकुम | ||
+ | और हथेलियों पर मेंहदी की महक | ||
+ | सजाए रहना पड़ता है | ||
+ | खोखले रिश्ते को ठोस | ||
+ | दिखाने के लिए | ||
+ | अपनाए बिना अपनाने के ढोंग का | ||
+ | कदम दर कदम तय करना पड़ता है | ||
+ | सफ़र हमसफ़र के संग | ||
+ | दबाने पड़ते हैं तूफान | ||
+ | भीतर ही भीतर बरस के | ||
+ | आसान नहीं होता खोलना | ||
+ | गठबंधन की गाँठ को | ||
+ | रोक लेती है रिश्तों की मर्यादा | ||
+ | चौखट के भीतर | ||
+ | सिमट के रह जाते है कदम | ||
+ | समाजिक खड़िया से खिंची | ||
+ | लक्षमण रेखा के पीछे | ||
+ | सरल नहीं होता सखी | ||
+ | एक औरत होना। | ||
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18:01, 14 जून 2019 के समय का अवतरण
कितनी सहजता से
कह दिया सखी तूने
तोड़ देती उस रिश्ते को
तू बँधती इस बंधन में
तो जान पाती
आसान नहीं होता
मर्यादा की गिरहों को खोलना ।
दबानी पड़ती है चाहतें
दायित्व की चट्टान तले
ख़्वाहिशों को मार कर
होंठों की लरजन पर
उगानी पड़ती है हँसी
और गुनगुनानी पड़ती है पीड़ा
प्रेम गीतों की तर्ज़ में
खारी लहरों को मोड़ना पड़ता है
भीतरी समंदर में
सींचना पड़ता है शब्दों को
आँखों की नमी से
खुशी का भ्रम बनाए रखने को
स्याह मन की कालिख़
सजानी होती है डोरों पर
मांग में सिंदूर
माथे पर दिपदिपाता कुमकुम
और हथेलियों पर मेंहदी की महक
सजाए रहना पड़ता है
खोखले रिश्ते को ठोस
दिखाने के लिए
अपनाए बिना अपनाने के ढोंग का
कदम दर कदम तय करना पड़ता है
सफ़र हमसफ़र के संग
दबाने पड़ते हैं तूफान
भीतर ही भीतर बरस के
आसान नहीं होता खोलना
गठबंधन की गाँठ को
रोक लेती है रिश्तों की मर्यादा
चौखट के भीतर
सिमट के रह जाते है कदम
समाजिक खड़िया से खिंची
लक्षमण रेखा के पीछे
सरल नहीं होता सखी
एक औरत होना।