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"घुँघरी ! / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
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निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही
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निद्रा नहीं स्वप्न ना कोई
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उत्तर की अभिलाषा  नहीं
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मुँदी पलकें भूरी पुतलियाँ
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गति की परिभाषा ही नहीं
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मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
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निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह- गीत रचती ही रही
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टूटा मन कच्ची शाखा -सा
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खिली नहीं स्वप्नों की डाली
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यौवन-विवश बूढ़े वृक्ष-सा
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ठूँठ-प्रिय-वियोग ने कर डाला
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मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
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निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही
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प्रिय खड़ा सीमा पर बर्फीली
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मैं पहाड़ पर जीवन लिखती
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चौका-चूल्हा-बर्तन-कपड़ा-खेती
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पशु, पानी-घास-लकड़ी का बोझा
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मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
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निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही
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बोझे को बोझा कभी न समझी
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यह तो जीवनशैली मेरी नित की
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कन्धों पर बच्चों की शिक्षा भी
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पोस्ट-ऑफिस और बैंक-स्कूल भी
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मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
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निःशब्द रात्रि में निर्झर -सी, विरह-गीत रचती ही रही
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पहाड़ी कण-कण में राग जगाती
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पगडण्डी पर  जीवन साज सुनाती
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धराशायी प्रेम धरा का ऋतु बदली
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प्रियतम दूर खड़ा नभ बिन बदली
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मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
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निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही  
  
 
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02:07, 29 जून 2019 के समय का अवतरण


मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही

निद्रा नहीं स्वप्न ना कोई
उत्तर की अभिलाषा नहीं
मुँदी पलकें भूरी पुतलियाँ
 गति की परिभाषा ही नहीं
मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह- गीत रचती ही रही

टूटा मन कच्ची शाखा -सा
खिली नहीं स्वप्नों की डाली
यौवन-विवश बूढ़े वृक्ष-सा
ठूँठ-प्रिय-वियोग ने कर डाला
मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही

प्रिय खड़ा सीमा पर बर्फीली
मैं पहाड़ पर जीवन लिखती
चौका-चूल्हा-बर्तन-कपड़ा-खेती
पशु, पानी-घास-लकड़ी का बोझा
मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही

बोझे को बोझा कभी न समझी
यह तो जीवनशैली मेरी नित की
कन्धों पर बच्चों की शिक्षा भी
पोस्ट-ऑफिस और बैंक-स्कूल भी
मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
निःशब्द रात्रि में निर्झर -सी, विरह-गीत रचती ही रही

पहाड़ी कण-कण में राग जगाती
 पगडण्डी पर जीवन साज सुनाती
धराशायी प्रेम धरा का ऋतु बदली
प्रियतम दूर खड़ा नभ बिन बदली
मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी
निःशब्द रात्रि में निर्झर-सी, विरह-गीत रचती ही रही 