भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सात समंदर / विनय मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> लगा छल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=
+
|रचनाकार=विनय मिश्र
 
|अनुवादक=
 
|अनुवादक=
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
<poem>
 
<poem>
 
लगा छलांगें  
 
लगा छलांगें  
  पार हो गए सात समंदर  
+
पार हो गए सात समंदर  
  
  शिक्षा के बेढंगेपन ने
+
शिक्षा के बेढंगेपन ने
  ऐसा पीसा  
+
ऐसा पीसा  
  गले में टाई होठों पर
+
गले में टाई होठों पर
  हनुमान चलीसा  
+
हनुमान चलीसा  
  किसी युक्ति से  
+
किसी युक्ति से  
  जो जीता है वही सिकंदर  
+
जो जीता है वही सिकंदर  
  
  अपराधी पहुंचे संसद में  
+
अपराधी पहुंचे संसद में  
  अच्छे खासे  
+
अच्छे खासे  
  आजादी का तांडव देखा  
+
आजादी का तांडव देखा  
  लाल किले से  
+
लाल किले से  
  गए काम से  
+
गए काम से  
  गांधीजी के तीनों बंदर  
+
गांधीजी के तीनों बंदर  
  
  धन बल से अब कद जीवन का  
+
धन बल से अब कद जीवन का  
  लगा है  नपने  
+
लगा है  नपने  
  दूर-दूर तक जीभ निकाले  
+
दूर-दूर तक जीभ निकाले  
  फिरते सपने  
+
फिरते सपने  
  यही प्रगति है बाहर हंँसते  
+
यही प्रगति है बाहर हंँसते  
  रोते भीतर
+
रोते भीतर
 
</poem>
 
</poem>

23:42, 6 जुलाई 2019 के समय का अवतरण

लगा छलांगें
पार हो गए सात समंदर

शिक्षा के बेढंगेपन ने
ऐसा पीसा
गले में टाई होठों पर
हनुमान चलीसा
किसी युक्ति से
जो जीता है वही सिकंदर

अपराधी पहुंचे संसद में
अच्छे खासे
आजादी का तांडव देखा
लाल किले से
गए काम से
गांधीजी के तीनों बंदर

धन बल से अब कद जीवन का
लगा है नपने
दूर-दूर तक जीभ निकाले
फिरते सपने
यही प्रगति है बाहर हंँसते
रोते भीतर