{{KKRachna
|रचनाकार=सुभाष राय
|संग्रह= सलीब पर सच / सुभाष राय
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मैं जब भी वर्तमान से मुठभेड़ करना चाहता हूंहूँबार-बार इतिहास अपने निर्मम और विकृत चेहरेके साथ तमाम अबूझे, अनुत्तरित सवालों के साथ आकर खड़ा हो जाता है मेरे सामनेअपने तमाम अनबूझे, अनुत्तरित सवालों के साथहुक्मरां हुक्मराँ कहते हैं भूल जाओ इसे, आगे बढ़ोमत उखाड़ो गड़े मुर्दे, दफ्न दफ़्न रहने दो उन्हें जमीन मेंक्योंकि वे उखड़े तो नये नए खतरे उभरेंगेदुर्गंध दुर्गन्ध लोगों के दिमागों को गंदा गन्दा करेगीपरिजनों, पूर्वजों के जिस्म पर घाव देखलोग अपना गुस्सा भड़कने से रोक नहीं पायेंगेपाएँगेकब्रिस्तान से सड़कों पर निकल आयेंगे कबंधआएँगे कबन्धएक-दूसरे से उलझते हुए, टकराते हुएवर्तमान पर भयानक अट्टहास करते हुए
वे डरते हैं कि इतिहास उनके काले चिट्ठे खोल देगा
उनके चेहरे से नकाब नोंच कर फेंक देगा
उन्हें गैर-जिम्मेदार, धूर्त, नंगा और पाखंडी करार देगायादें ताजा ताज़ा हो उठेंगी और लहूलुहान हो उठेंगे जिस्मउन्हें इतिहास इसलिए पसंद पसन्द नहीं है क्योंकिक्योंकि उसके पन्नों में वे दिखते हैं हत्यारों के जुलूस कोललकारते हुए, उनका सरेआम नेतृत्व करते हुएगांधी गान्धी के लहू से लिखी इबारत को खारिज ख़ारिज करते हुएचुनौती के अंदाज में नयी स्थापनाएं स्थापनाएँ अनावृत करते हुए
कि खादी का तलवार से भी रिश्ता हो सकता है
कि अहिंसा को खून ख़ून से खास ख़ास परहेज नहींकि राजनीति का मतलब है केवल छल-छद्मकि जनता को कह सकते हो बेवकूफों है सिर्फ़ बेवकूफ़ों की भीड़ कि नेता वक्त पर बन सकता है आदमखोर भी उन्हें इतिहास इसलिए भी नापसंद नापसन्द है क्योंकिवे तब खामोश रहकर इंतजार करते ख़ामोश रहेजब सरयू का निर्मल पानी थरथरा रहा थातट पर इकट्ठे लाखों लोगों के घातक तुमुलघोष सेइतिहास का चेहरा जर्द पड़ गया था देखकर
कुल्हाड़ियों, फावड़ों, कुदालों से लैस हमलावरों को
कानून और संविधान को पागलों के एक सरगना ने
जकड़ रखा था अपनी ताकतवर ताक़तवर भुजाओं मेंगुलाम ग़ुलाम वर्दियों में कसमसाने का भी साहस नहीं थावे अपनी बंदूकें कंधे बन्दूकें कन्धे पर संभाले सम्भाले सुकून सेतूफान तूफ़ान के गुजर गुज़र जाने की प्रतीक्षा कर रहे थेकई सदियां सिर पर उठाये एक इमारत कांप रही थीआस-पास के छायादार पेड़ अपनी जड़ों सेखुद को बांधे हुए मजबूर और बेजान हो गये थेयकायक भीड़ के पैरों तले रौंदे जाने के भय सेजब समय के एक पल में शताब्दियों की स्मृतिढहकर बिखर गयी, धूल में बदल गयीविशाल हिंदुस्तान के सीने, गले और पांव सेजिंदा शहरों के जिस्म से खून टपकने लगातब वे कानून की भाषा बोलते सड़क पर आयेवक्त उनके भविष्य पर पंजे गड़ाता हुआ जा चुका था
कई सदियाँ सिर पर उठाए एक इमारत काँप रही थी आसपास के छायादार पेड़ अपनी जड़ों से ख़ुद को बान्धे हुए मज़बूर और बेजान हो गए थेयकायक भीड़ के पैरों तले रौन्दे जाने के भय सेएक पल में शताब्दियों की स्मृति धूल के गूबार में बदल गईहिन्दुस्तान के सीने, गले और पाँव से ज़िन्दा शहरों के जिस्म से ख़ून टपकने लगाजब वे जानते हैं कि कानून की भाषा बोलते सड़क पर आएवक़्त उनके भविष्य पर पँजे गड़ाता हुआ जा चुका था उनकी चुप्पी में भी एक आवाज आवाज़ थीएक निहायत कमीनी, छलभरी चालाक आवाजवे कुछ पाना चाहते थे इस तरह चुप रहकरआवाज़
इतिहास के पन्ने पलटे तो यह सच बार-बार
लोगों की हड्डियों में पुराने दर्द की तरह उभरेगाऔर वे मचल उठेंगे सबक सिखाने के लिएउन्हें इतिहास से इसलिए भी एलर्जी है क्योंकिजब ट्रेन के सिर्फ सिर्फ़ एक डिब्बे की लपट में गांधी गान्धी का समूचा गृहराज्य जल उठा थातब भी सत्ता की लगाम मुकुट उन्हीं के हाथ में थीसर पर बहाना था उनके पास अपनी विवशताओं काधुएं धुएँ से काला पड़ गया था सारा आसमानअंधी अन्धी हत्याओं की गंध गन्ध से बोझिल थीं हवाएंहवाएँक्षोभ और पीड़ा से दहकती अहिंसा की धरतीसंभाल सम्भाल नहीं पा रही थी अपने सीने मेंसैकड़ों बेकुसूर बेक़सूर परिवारों के मरे हुए सपनेराजमहल में रची जा रही थीं साजिशेंछुरे तेज किये जा रहे थे अंधेरी रातों मेंमुहल्ले-मुहल्ले की गर्दन कतर देने के लिएत्रिशूलों के मृत्यु-नाद से मृत्युनाद में दबी कातर चीखें चीख़ें पहुंची पहुँची तो जरूर होगी ज़रूर होंगी उनके कानों तकफिर भी चुप रह जाने का अक्षम्य अपराधयाद दिलाते दिलाता हैं रक्तरंजित पन्ने रक्तरँजित इतिहास के
इतिहास पर किसी का वश नहीं चलता
वह कभी झूठ भी नहीं बोलताइसीलिए वे डरते हैं इतिहास सेवर्तमान को सहेजने की कोशिश में
विनम्र, निश्छल दिखने का अभ्यास करते हैं
पर शायद वे ठीक से जानते नहीं कि
इतिहास के बिना वर्तमान टिकता नहीं
भविष्य के सपने जमीन पर नहीं आतेइसलिए जब भी वर्तमान की चर्चा होगीउन्हें इतिहास का सामना करना ही पड़ेगा
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