भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लौट आओ / बुद्धिनाथ मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बुद्धिनाथ मिश्र |संग्रह=ऋतुराज एक पल का / बुद्धि…)
 
 
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
  
 
काँच के बिखरे हुए टुकड़े सहेजो
 
काँच के बिखरे हुए टुकड़े सहेजो
गीत की फ़सलें नई इनसे उगेंगी।
+
गीत की फ़सलें नई इनसे उगेंगी ।
  
 
जेब में बीरान घर की चाभियाँ ले
 
जेब में बीरान घर की चाभियाँ ले
पंक्ति 27: पंक्ति 27:
 
खाइयाँ मन और मौसम की भरेंगी ।  
 
खाइयाँ मन और मौसम की भरेंगी ।  
  
जो गढे सूरज सुबह से शाम तक, क्यों
+
जो गढ़े सूरज सुबह से शाम तक, क्यों
एक अँजुरी धूप को वह नस्ल तरसे!
+
एक अँजुरी धूप को वह नस्ल तरसे !
 
सोखकर पानी सभी बूढ़ी नदी का
 
सोखकर पानी सभी बूढ़ी नदी का
 
व्योमवासी मेघ पर्वत पार बरसे
 
व्योमवासी मेघ पर्वत पार बरसे
पंक्ति 34: पंक्ति 34:
 
लौट आओ तुम कि फिर सीली हवाएँ
 
लौट आओ तुम कि फिर सीली हवाएँ
 
चोटियों पर बर्फ़ के फाहे धरेंगी ।
 
चोटियों पर बर्फ़ के फाहे धरेंगी ।
 
  
 
'''(रचनाकाल : 2010)
 
'''(रचनाकाल : 2010)
 
</poem>
 
</poem>

00:12, 8 अगस्त 2019 के समय का अवतरण

गिर रहे पत्ते चिनारों के, छतों पर
सेब के बागान की किस्मत जगेगी
लौट आओ,जंग से भागे परेबो
मंदिरों की मूरतें हँसने लगेंगी ।

लौट आओ, तुम जहाँ भी हो, तुम्हारी
है ज़रूरत आज फिर से वादियों को
याद करती हैं सुबक कर रोज़ केसर-
क्यारियाँ अपने पुराने साथियों को

काँच के बिखरे हुए टुकड़े सहेजो
गीत की फ़सलें नई इनसे उगेंगी ।

जेब में बीरान घर की चाभियाँ ले
तुम चले थे ज़ंगखोरों को हराने
याद करती आज भी भुतहा हवेली
जीतकर भी हारते क्यों, राम जाने

लौट आओ, सब्ज़ बचपन को दुलारो
खाइयाँ मन और मौसम की भरेंगी ।

जो गढ़े सूरज सुबह से शाम तक, क्यों
एक अँजुरी धूप को वह नस्ल तरसे !
सोखकर पानी सभी बूढ़ी नदी का
व्योमवासी मेघ पर्वत पार बरसे

लौट आओ तुम कि फिर सीली हवाएँ
चोटियों पर बर्फ़ के फाहे धरेंगी ।

(रचनाकाल : 2010)