भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उर में छाले / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 18: पंक्ति 18:
 
भीष्म-मन आहत,
 
भीष्म-मन आहत,
 
जीना मुश्किल
 
जीना मुश्किल
उत्तरायण भी बीते
+
उत्तरायण बीता
 
मरने को तरसे।
 
मरने को तरसे।
 
3
 
3
पंक्ति 37: पंक्ति 37:
 
मन विकल  
 
मन विकल  
 
नयन छलछल
 
नयन छलछल
बहते विकल,
+
बहते हैं विकल,
 
कहते कथा
 
कहते कथा
 
साँझ से भोर तक,  
 
साँझ से भोर तक,  

22:45, 23 फ़रवरी 2020 के समय का अवतरण

1
सारी ही उम्र
बीती समझाने में
थक गए उपाय,
जो था पास में
वो सब रीत गया
यूँ वक्त बीत गया।
2
ज़हर-बुझे
बाण जब बरसे
भीष्म-मन आहत,
जीना मुश्किल
उत्तरायण बीता
मरने को तरसे।
3
जीवन तप
चुपचाप सहना
कुछ नहीं कहना,
पाई सुगन्ध
जब गुलाब जैसी
काँटों में ही रहना।
4
उर में छाले
मुस्कानों पर लगे
हर युग में ताले,
पोंछे न कोई
आँसू जब बहते
रिश्तों के बीहड़ में।
5
मन विकल
नयन छलछल
बहते हैं विकल,
कहते कथा
साँझ से भोर तक,
जाग सुनती व्यथा ।