"पागल औरत / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर
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उसकी पहचान तय करने के लिए काफ़ी थे | उसकी पहचान तय करने के लिए काफ़ी थे | ||
लेकिन यह समझना मुश्किल था कि उसके साथ क्या हुआ है | लेकिन यह समझना मुश्किल था कि उसके साथ क्या हुआ है | ||
वह नुक्कड़ पर उस दूकान के सामने खड़ी हो गई थी | वह नुक्कड़ पर उस दूकान के सामने खड़ी हो गई थी | ||
− | जहाँ सुबह-सुबह आसपास की | + | जहाँ सुबह-सुबह आसपास की झोपड़ियों के ग़रीब बच्चे |
बहुराष्ट्रीय निगमों के चिप्स के पैकेट ख़रीदने आते हैं | बहुराष्ट्रीय निगमों के चिप्स के पैकेट ख़रीदने आते हैं | ||
उस औरत के पीछे कुछ आवारा कुत्ते | उस औरत के पीछे कुछ आवारा कुत्ते | ||
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वह पगली कुछ देर बाद चली गई बिना कुछ लिए हुए | वह पगली कुछ देर बाद चली गई बिना कुछ लिए हुए | ||
हम लोग जान नहीं पाए | हम लोग जान नहीं पाए | ||
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सिवा इसके कि वह अपने पागलपन को बचाए रखना चाहती थी | सिवा इसके कि वह अपने पागलपन को बचाए रखना चाहती थी | ||
− | लेकिन उसके क्रुद्ध शब्द भारी पत्थरों की तरह | + | लेकिन उसके क्रुद्ध शब्द भारी पत्थरों की तरह आस पास छूट गए |
उसके दुर्बोध शाप चीलों की तरह हमारे ऊपर पर मण्डराने लगे | उसके दुर्बोध शाप चीलों की तरह हमारे ऊपर पर मण्डराने लगे | ||
यह तय नहीं हो पाया आखिर वह कहाँ की रही होगी | यह तय नहीं हो पाया आखिर वह कहाँ की रही होगी |
16:49, 18 जून 2020 के समय का अवतरण
यह लगभग तय था कि वह पागल है
उसका तार-तार हुलिया उलझे हुए बाल ग़ुस्सैल चेहरा
उसकी पहचान तय करने के लिए काफ़ी थे
लेकिन यह समझना मुश्किल था कि उसके साथ क्या हुआ है
वह नुक्कड़ पर उस दूकान के सामने खड़ी हो गई थी
जहाँ सुबह-सुबह आसपास की झोपड़ियों के ग़रीब बच्चे
बहुराष्ट्रीय निगमों के चिप्स के पैकेट ख़रीदने आते हैं
उस औरत के पीछे कुछ आवारा कुत्ते
जैसे उसके शब्दों को समझने की कोशिश करते हुए चले आए थे
वह लगातार ऐसी भाषा में बड़बड़ा रही थी जो समझ से परे थी
किसी ने कहा बंगाली लगती है
दूसरे ने कहा अरे नहीं मद्रास की तरफ़ की होगी
तभी तो समझ नहीं आ रही है उसकी बात
एक ने कहा हिन्दी वाली ही है लेकिन अपनी भाषा भूल गई है
किसी को उसमें पंजाबी के कुछ शब्द सुनाई दिए
यह जानना भी कठिन था उसे क्या चाहिए
वह चाय की तरफ इशारा करती लेकिन जब हम उसे चाय देते
तो वह बिस्किट के पैकेटों की ओर देखती
बिस्किट देने पर चिप्स के पैकेटों की ओर
चिप्स देने पर उसकी उंगली फिर चाय की तरफ़ चली जाती
इस तरह वह कई चीज़ों की ओर संकेत करती
सड़क हवा पेड़ आसमान की तरफ देखकर भी बोलती जाती
कभी लगता वह हवा में से कोई चीज़ खींचकर अपने भीतर ला रही है
कभी लगता जैसे उसने अपनी बातों के जवाब भी सुन लिए हों
और बदले में वह कोई शाप दे रही हो
हम लोगों ने पूछा — ओ माँ, लगातार बोलोगी ही,
कुछ कहोगी नहीं, तुम्हें क्या चाहिए
और फिर यह हमारे लिए एक खेल की तरह हो गया
वह पगली कुछ देर बाद चली गई बिना कुछ लिए हुए
हम लोग जान नहीं पाए
इस संसार में आख़िर क्या था उसका संसार
सिवा इसके कि वह अपने पागलपन को बचाए रखना चाहती थी
लेकिन उसके क्रुद्ध शब्द भारी पत्थरों की तरह आस पास छूट गए
उसके दुर्बोध शाप चीलों की तरह हमारे ऊपर पर मण्डराने लगे
यह तय नहीं हो पाया आखिर वह कहाँ की रही होगी
लेकिन उसके शब्द हमारे बीच से हट नहीं रहे थे
शायद वह किसी एक जगह की नहीं थी
तमाम जगहों और इस समूचे देश की थी
और उसकी वर्णमाला उन तमाम भाषाओं के
उन शब्दों से बनी थी जिनका इस्तेमाल पागल लोग करते हैं
उनमें शाप देते रहते हैं
अपनी मनुष्यता व्यक्त करते हैं
जिसे हम जैसे गैर-पागल कभी समझ नहीं पाते।