भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ततैया का घर / अरुण देव" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
उनके पीताभ की कोई आभा नहीं | उनके पीताभ की कोई आभा नहीं | ||
− | वे बेवजह | + | वे बेवजह डंक नहीं मारतीं |
आदमी आदमी के विष का इतना अभ्यस्त है कि | आदमी आदमी के विष का इतना अभ्यस्त है कि | ||
डर में रहता है | डर में रहता है | ||
स्त्रियों के भय को समझा जा सकता है | स्त्रियों के भय को समझा जा सकता है | ||
− | उनके ऊपर तो वैसे ही चुभे हुए | + | उनके ऊपर तो वैसे ही चुभे हुए डंक हैं |
छत्ते जो दीवार में कहीं लटके रहते हैं | छत्ते जो दीवार में कहीं लटके रहते हैं |
00:13, 18 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
घरों में कहीं किसी जगह वह अपना घर बनाती हैं
छत्ते जहाँ उनके अण्डे पलते हैं
उनके पीताभ की कोई आभा नहीं
वे बेवजह डंक नहीं मारतीं
आदमी आदमी के विष का इतना अभ्यस्त है कि
डर में रहता है
स्त्रियों के भय को समझा जा सकता है
उनके ऊपर तो वैसे ही चुभे हुए डंक हैं
छत्ते जो दीवार में कहीं लटके रहते हैं
गिरा दिए जाते हैं
छिड़क कर मिट्टी का तेल जला दिया जाता है
उनके नवजात मर जाते हैं
घर में कोई और घर कैसे ?
वे इधर उधर उड़ती हैं
जगह खोजती हैं
फिर बनाती हैं अपना घर अब और आड़ में
विष तो है
कहाँ है वह ?