"कड़ुआ पाठ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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लिखा था, गया था, सुनाया था, | लिखा था, गया था, सुनाया था, | ||
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निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद | निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद | ||
− | + | एक रहस्य था, भेद-भरा, भुतहा; | |
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बहुतों ने सुनी थी | बहुतों ने सुनी थी | ||
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रात-विरात, आधी रात | रात-विरात, आधी रात | ||
− | + | एक चीख, पुकार, प्यार का मनुहार, | |
− | एक चीख, पुकार, | + | मदमस्तों का तुमुल उन्माद, अट्टहास, |
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कभी एक तान, कभी सामूहिक गान, | कभी एक तान, कभी सामूहिक गान, | ||
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दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह, | दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह, | ||
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फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता) | फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता) | ||
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मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा, | मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा, | ||
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एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है। | एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है। | ||
− | + | भूतों का भोजन है भेद, रहस्य, अंधकार; | |
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भूतों को असह्य उजियार, | भूतों को असह्य उजियार, | ||
− | + | पार देखती आँख, | |
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पार से उठता सवाल। | पार से उठता सवाल। | ||
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भूतों की कचहरी भी होती है। | भूतों की कचहरी भी होती है। | ||
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हो चुका है मुझसे अपराध, | हो चुका है मुझसे अपराध, | ||
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माँग रहा है मुझसे | माँग रहा है मुझसे | ||
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− | + | दरिया में डूबता सूरज, | |
− | + | झुरमुट में अटका चाँद, | |
− | + | बादल में झाँकते तारे, | |
− | + | हरसिंगार के झरते फूल, | |
− | + | दम घोंटती सी हवा, | |
− | + | विष घोलती-सी रात, | |
− | + | पाँवों से दबी दूब, | |
− | + | घर दर दीवार, | |
− | + | चली, छनी राह | |
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पल, छिन, दिन, पाख, मास- | पल, छिन, दिन, पाख, मास- | ||
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समय का सारा परिवार- | समय का सारा परिवार- | ||
− | + | मूक! | |
− | + | मेरे श्ब्दों के सिवा कोई नहीं है मेरा गवाह। | |
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मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल, | मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल, | ||
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सीख लिया है कड़ुआ पाठ, | सीख लिया है कड़ुआ पाठ, | ||
− | + | पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है। | |
− | + | सत्य कविता में ही बोला जा सकता है। | |
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21:12, 27 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
एक दिन मैंने प्यार पाया, किया था,
और प्यार से घृणा तक
उसके हर पहू को एकांत में जिया था,
और बहुत कुछ किया था,
जो मुझसे भाग्यवान-उभागे करते हैं, भोगते हैं,
मगर छिपाते हैं;
मैंने छिपाए को शब्दों में खोला था,
लिखा था, गया था, सुनाया था,
कह दिया था,
गीत में, काव्य में,
क्यों कि सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।
निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद
एक रहस्य था, भेद-भरा, भुतहा;
बहुतों ने सुनी थी
रात-विरात, आधी रात
एक चीख, पुकार, प्यार का मनुहार,
मदमस्तों का तुमुल उन्माद, अट्टहास,
कभी एक तान, कभी सामूहिक गान,
दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह,
फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता)
पूछता-सा क्या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा,
एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है।
भूतों का भोजन है भेद, रहस्य, अंधकार;
भूतों को असह्य उजियार,
पार देखती आँख,
पार से उठता सवाल।
भूतों की कचहरी भी होती है।
हो चुका है मुझसे अपराध,
भूतों का दल तन्नाया-भिन्नाया, मुझ पर टूट
माँग रहा है मुझसे
अपने होने का सबूत।
दरिया में डूबता सूरज,
झुरमुट में अटका चाँद,
बादल में झाँकते तारे,
हरसिंगार के झरते फूल,
दम घोंटती सी हवा,
विष घोलती-सी रात,
पाँवों से दबी दूब,
घर दर दीवार,
चली, छनी राह
पल, छिन, दिन, पाख, मास-
समय का सारा परिवार-
मूक!
मेरे श्ब्दों के सिवा कोई नहीं है मेरा गवाह।
मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल,
सीख लिया है कड़ुआ पाठ,
पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है।
सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।