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"कड़ुआ पाठ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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एक दिन मैंने प्‍यार पाया, किया था,
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एक दिन मैंने प्यार पाया, किया था,
 
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और प्यार से घृणा तक
और प्‍यार से घृणा तक
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उसके हर पहू को एकांत में जिया था,
 
उसके हर पहू को एकांत में जिया था,
 
 
और बहुत कुछ किया था,
 
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जो मुझसे भाग्यवान-उभागे करते हैं, भोगते हैं,
जो मुझसे भाग्‍यवान-उभागे करते हैं, भोगते हैं,
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मगर छिपाते हैं;
 
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मैंने छिपाए को शब्दों में खोला था,
मैंने छिपाए को शब्‍दों में खोला था,
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लिखा था, गया था, सुनाया था,
 
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कह दिया था,
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गीत में, काव्य में,
 
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क्यों कि सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।
गीत में, काव्‍य में,
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::क्‍यों कि सत्‍य कविता में ही बोला जा सकता है।
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निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद
 
निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद
 
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एक रहस्य था, भेद-भरा, भुतहा;
एक रहस्‍य था, भेद-भरा, भुतहा;
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बहुतों ने सुनी थी
 
बहुतों ने सुनी थी
 
 
रात-विरात, आधी रात
 
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एक चीख, पुकार, प्यार का मनुहार,
एक चीख, पुकार, प्‍यार का मनुहार,
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मदमस्तों का तुमुल उन्माद, अट्टहास,
 
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मदमस्‍तों का तुमुल उन्‍माद, अट्टहास,
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कभी एक तान, कभी सामूहिक गान,
 
कभी एक तान, कभी सामूहिक गान,
 
 
दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह,
 
दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह,
 
 
फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता)
 
फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता)
 
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पूछता-सा क्या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
पूछता-सा क्‍या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
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मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा,
 
मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा,
 
 
एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है।
 
एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है।
  
 
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भूतों का भोजन है भेद, रहस्य, अंधकार;
भूतों का भोजन है भेद, रहस्‍य, अंधकार;
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भूतों को असह्य उजियार,
 
भूतों को असह्य उजियार,
 
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पार देखती आँख,
:::पार देखती आँख,
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पार से उठता सवाल।
 
पार से उठता सवाल।
 
 
भूतों की कचहरी भी होती है।
 
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हो चुका है मुझसे अपराध,
 
हो चुका है मुझसे अपराध,
 
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भूतों का दल तन्नाया-भिन्नाया, मुझ पर टूट
भूतों का दल तन्‍नाया-भिन्‍नाया, मुझ पर टूट
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माँग रहा है मुझसे
 
माँग रहा है मुझसे
 
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अपने होने का सबूत।
::अपने होने का सबूत।
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दरिया में डूबता सूरज,
 
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झुरमुट में अटका चाँद,
::दरिया में डूबता सूरज,
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बादल में झाँकते तारे,
 
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हरसिंगार के झरते फूल,
::झुरमुट में अटका चाँद,
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दम घोंटती सी हवा,
 
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विष घोलती-सी रात,
::बादल में झाँकते तारे,
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पाँवों से दबी दूब,
 
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घर दर दीवार,
::हरसिंगार के झरते फूल,
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चली, छनी राह
 
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::पाँवों से दबी दूब,
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पल, छिन, दिन, पाख, मास-
 
पल, छिन, दिन, पाख, मास-
 
 
समय का सारा परिवार-
 
समय का सारा परिवार-
 
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मूक!
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मेरे श्ब्दों के सिवा कोई नहीं है मेरा गवाह।
 
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मेरे श्‍ब्‍दों के सिवा कोई नहीं है मेरा गवाह।
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मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल,
 
मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल,
 
 
सीख लिया है कड़ुआ पाठ,
 
सीख लिया है कड़ुआ पाठ,
 
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पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है।
::पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है।
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सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।
 
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::सत्‍य कविता में ही बोला जा सकता है।
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21:12, 27 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

एक दिन मैंने प्यार पाया, किया था,
और प्यार से घृणा तक
उसके हर पहू को एकांत में जिया था,
और बहुत कुछ किया था,
जो मुझसे भाग्यवान-उभागे करते हैं, भोगते हैं,
मगर छिपाते हैं;
मैंने छिपाए को शब्दों में खोला था,
लिखा था, गया था, सुनाया था,
कह दिया था,
गीत में, काव्य में,
क्यों कि सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।
निचाट में अकेला खड़ा वह प्रसाद
एक रहस्य था, भेद-भरा, भुतहा;
बहुतों ने सुनी थी
रात-विरात, आधी रात
एक चीख, पुकार, प्यार का मनुहार,
मदमस्तों का तुमुल उन्माद, अट्टहास,
कभी एक तान, कभी सामूहिक गान,
दुखिया की आह, चोट खाए घायल की कराह,
फिर मौन (मौत भी सुना जा सकता)
पूछता-सा क्या? कब? कहाँ? कौन? कौ...न?...
मैं भी भूत हो जाऊँ, उसके पूर्व सोचा,
एक पारदर्शी द्वार है जो खोला जा सकता है।

भूतों का भोजन है भेद, रहस्य, अंधकार;
भूतों को असह्य उजियार,
पार देखती आँख,
पार से उठता सवाल।
भूतों की कचहरी भी होती है।
हो चुका है मुझसे अपराध,
भूतों का दल तन्नाया-भिन्नाया, मुझ पर टूट
माँग रहा है मुझसे
अपने होने का सबूत।
दरिया में डूबता सूरज,
झुरमुट में अटका चाँद,
बादल में झाँकते तारे,
हरसिंगार के झरते फूल,
दम घोंटती सी हवा,
विष घोलती-सी रात,
पाँवों से दबी दूब,
घर दर दीवार,
चली, छनी राह
पल, छिन, दिन, पाख, मास-
समय का सारा परिवार-
मूक!
मेरे श्ब्दों के सिवा कोई नहीं है मेरा गवाह।
मैंने महसूस कर ली है अपनी भूल,
सीख लिया है कड़ुआ पाठ,
पारदर्शी द्वार नहीं खोला जा सकता है।
सत्य कविता में ही बोला जा सकता है।