"दिखा नही मेले में मुझको / अंकित काव्यांश" के अवतरणों में अंतर
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शायद कोई हो जो उससे मिलकर आया। | शायद कोई हो जो उससे मिलकर आया। | ||
चकाचौंध में डूबा हुआ एक भी मानुष | चकाचौंध में डूबा हुआ एक भी मानुष | ||
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अपनी पूँजी | अपनी पूँजी |
23:28, 2 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
ऐसा कुछ भी
दिखा नही मेले में मुझको
बहुत समय तक जिसके पास ठहर जाऊँ मैं।
रंग बिरंगे दृश्य चतुर्दिक् पाँव पसारे
मुझको बाँहों में भर लेने को इच्छुक थे।
मूल्य गिरा सकने की कला अगर होती तो
सुविधाओं के ठाटबाट मेरे सम्मुख थे।
तोल-मोल में
माहिर व्यापारी थे सारे
सोचा ख़ाली हाथ लिए ही घर जाऊँ मैं।
रामकथा का मंचन करती हुई मण्डली
दूर गोलबंदी करने में जुटा मदारी।
मुझे आगमन से लेकर प्रस्थान बिंदु तक
या तो अभिनय दिखा, दिखी या फिर लाचारी।
करतब जादू
खेल-तमाशा देख लिया सब
खड़ा भीड़ में उलझन लिए, किधर जाऊँ मैं!
जाते जाते सोचा चलो पूछ लेता हूँ
शायद कोई हो जो उससे मिलकर आया।
चकाचौंध में डूबा हुआ एक भी मानुष
अक्षय आकर्षण का पता नहीं दे पाया।
अपनी पूँजी
भर का झूल चुका हूँ झूला
ऊब गया हूँ, मन कर रहा उतर जाऊँ मैं।