"जंगल-राग / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक शाह }} {{KKCatKavita}} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | खड़े होकर जंगल के दिल में | ||
+ | एक बार फिर से देखा | ||
+ | संयम और अनुशासन से | ||
+ | मस्ती में जंगल होते देखा | ||
+ | शाखा -प्रशाखा स्तंभ छतनार | ||
+ | पीलु पल्लव पिंजुल प्रबाल | ||
+ | कोंपल कुसुम कली कंट पराग | ||
+ | फल देखा छिलका और नाल | ||
+ | |||
+ | धूनी रमाए, वर्षों एकान्त | ||
+ | देखे तरुवर लता निहाल | ||
+ | धूसर धूमिल सिन्दूरी भूरे | ||
+ | लाल धवल आबनूसी पीले | ||
+ | पियरा, कंजइ, श्याम, रूपहला | ||
+ | देखा द्रुम हरा चितकबरा | ||
+ | |||
+ | जितना जहाँ पर होता जल | ||
+ | कहीं मिश्रित कहीं पतझड़ वन | ||
+ | मध्यवन में सरई की रियासत | ||
+ | शुद्ध साल की भली सजावट | ||
+ | |||
+ | बढ़ा सागोन दक्षिण से आया | ||
+ | दोमट लाल मिट्टी को भाया | ||
+ | कान्हा किसली घास मैदान | ||
+ | अंजन को भाया ग्रीष्म का ताप | ||
+ | |||
+ | वन का होता अपना जीवट | ||
+ | कभी हँसता कभी रोता जीवन | ||
+ | ज्यों-ज्यों बढ़ता भू तापमान | ||
+ | जडं थिरकतीं अँखुवाते पात | ||
+ | लाल कोंपल करते शुरुआत | ||
+ | दुश्मन कीड़ों को दिखे न पात | ||
+ | खिलता पुहुप मही पर छाता | ||
+ | विहग-वृन्द का बजता बाजा | ||
+ | |||
+ | |||
+ | फूलते-फलते वसन्त-ग्रीष्मान्त | ||
+ | आकलन कर प्रथम बूँदपात | ||
+ | बिखरता बीज चहुँ ओर तमाम | ||
+ | पत्ते हो उठते हरे नीलाभ | ||
+ | |||
+ | हर वृक्ष की अपनी छाल निराली | ||
+ | मोटी-पतली रेशम दिलवाली | ||
+ | यौवन से चमकती गठीली छाल | ||
+ | कभी डोकरी-सी झूलती खाल | ||
+ | वन पुष्पों का अनन्य संसार | ||
+ | इतना कमनीय कहाँ रंग विस्तार | ||
+ | समस्त अरण्य सुरम्य सजावट | ||
+ | कहाँ होती किसी दुःख की आहट | ||
+ | |||
+ | जब जब कानन हँसता-विहँसता | ||
+ | कुसुम-गंध हर दिल में बसता | ||
+ | खट्टे मीठे कड़वे कसैले | ||
+ | पीले लाल बैगनी मटमैले | ||
+ | मटर-से छोटे, कैथा विशाल | ||
+ | फल बीज होते चपटे गोलाकार | ||
+ | |||
+ | पत्र किसलयों के कई आकार | ||
+ | सरल संष्लिष्ट और पंखदार | ||
+ | सपाट किनारे कभी दाँतेदार | ||
+ | लम्बे, पतले, गोल हस्ताकार | ||
+ | |||
+ | आओ खु़द अब चलकर भीतर | ||
+ | देखें वृक्ष फुदकते तीतर | ||
+ | छोड़ लोभ करें वन प्रवेश | ||
+ | देखें अपने ही मित्र विशेष | ||
</poem> | </poem> |
14:25, 7 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
खड़े होकर जंगल के दिल में
एक बार फिर से देखा
संयम और अनुशासन से
मस्ती में जंगल होते देखा
शाखा -प्रशाखा स्तंभ छतनार
पीलु पल्लव पिंजुल प्रबाल
कोंपल कुसुम कली कंट पराग
फल देखा छिलका और नाल
धूनी रमाए, वर्षों एकान्त
देखे तरुवर लता निहाल
धूसर धूमिल सिन्दूरी भूरे
लाल धवल आबनूसी पीले
पियरा, कंजइ, श्याम, रूपहला
देखा द्रुम हरा चितकबरा
जितना जहाँ पर होता जल
कहीं मिश्रित कहीं पतझड़ वन
मध्यवन में सरई की रियासत
शुद्ध साल की भली सजावट
बढ़ा सागोन दक्षिण से आया
दोमट लाल मिट्टी को भाया
कान्हा किसली घास मैदान
अंजन को भाया ग्रीष्म का ताप
वन का होता अपना जीवट
कभी हँसता कभी रोता जीवन
ज्यों-ज्यों बढ़ता भू तापमान
जडं थिरकतीं अँखुवाते पात
लाल कोंपल करते शुरुआत
दुश्मन कीड़ों को दिखे न पात
खिलता पुहुप मही पर छाता
विहग-वृन्द का बजता बाजा
फूलते-फलते वसन्त-ग्रीष्मान्त
आकलन कर प्रथम बूँदपात
बिखरता बीज चहुँ ओर तमाम
पत्ते हो उठते हरे नीलाभ
हर वृक्ष की अपनी छाल निराली
मोटी-पतली रेशम दिलवाली
यौवन से चमकती गठीली छाल
कभी डोकरी-सी झूलती खाल
वन पुष्पों का अनन्य संसार
इतना कमनीय कहाँ रंग विस्तार
समस्त अरण्य सुरम्य सजावट
कहाँ होती किसी दुःख की आहट
जब जब कानन हँसता-विहँसता
कुसुम-गंध हर दिल में बसता
खट्टे मीठे कड़वे कसैले
पीले लाल बैगनी मटमैले
मटर-से छोटे, कैथा विशाल
फल बीज होते चपटे गोलाकार
पत्र किसलयों के कई आकार
सरल संष्लिष्ट और पंखदार
सपाट किनारे कभी दाँतेदार
लम्बे, पतले, गोल हस्ताकार
आओ खु़द अब चलकर भीतर
देखें वृक्ष फुदकते तीतर
छोड़ लोभ करें वन प्रवेश
देखें अपने ही मित्र विशेष