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"मिज़ाज-ए-मुस्तक़िल देना शुऊर-ए-मोअतबर देना / गौहर उस्मानी" के अवतरणों में अंतर

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कभी शुऊ'र कभी दिल कभी सुख़न महके
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मिज़ाज-ए-मुस्तक़िल देना शुऊर--मोअतबर देना
कहो वो शे'र कि दुनिया-ए-फ़िक्र--फ़न महके
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झुका पाए न जिस को वक़्त का तूफ़ाँ वो सर देना
  
अता हमें भी जो हो जाए 'मीर' का अंदाज़
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मुझे उम्र-ए-ख़िज़र देना कि उम्र-ए-मुख़्तसर देना
तो लफ़्ज़ लफ़्ज़ से मा'नी का पैरहन महके
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मिरे अफ़्कार लेकिन ज़िंदा-ए-जावेद कर देना
  
रहूँ ख़मोश तो फूलों को नींद आ जाए
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जो उट्ठे सम्त-ए-माज़ी वो नज़र मेरा नहीं हासिल
पढ़ूँ जो शे'र तो लफ़्ज़ों का बाँकपन महके
+
पस-ए-दीवार-ए-मुस्तक़बिल जो देखे वो नज़र देना
  
लरज़ते होंटों की वो गुफ़्तुगू तो याद नहीं
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मुजाहिद जंग के मैदाँ को जाए जिस तरह घर से
बस इतना याद है बरसों लब--दहन महके
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ये मंज़र ज़ेहन में रख कर मुझे इज़्न--सफ़र देना
  
दबी हुई है जो सदियों से ग़म की चिंगारी
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अगर इस रज़्म-गाह-ए-दहर में जीना ही है मुझ को
भड़क उठे तो ख़यालों की अंजुमन महके
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तो फिर इन यूरिशों में ज़िंदा रहने का हुनर देना
  
कभी तो ऐसा ज़माना भी आए ऐ 'गौहर'  
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सिवा हो जाए जिस से अज़्मत-ए-दीदा-वरी 'गौहर'  
मोहब्बतों की फ़ज़ा से मिरा वतन महके
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नज़र देना तो यारब फिर मुझे ऐसी नज़र देना
 
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13:23, 25 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

मिज़ाज-ए-मुस्तक़िल देना शुऊर-ए-मोअतबर देना
झुका पाए न जिस को वक़्त का तूफ़ाँ वो सर देना

मुझे उम्र-ए-ख़िज़र देना कि उम्र-ए-मुख़्तसर देना
मिरे अफ़्कार लेकिन ज़िंदा-ए-जावेद कर देना

जो उट्ठे सम्त-ए-माज़ी वो नज़र मेरा नहीं हासिल
पस-ए-दीवार-ए-मुस्तक़बिल जो देखे वो नज़र देना

मुजाहिद जंग के मैदाँ को जाए जिस तरह घर से
ये मंज़र ज़ेहन में रख कर मुझे इज़्न-ए-सफ़र देना

अगर इस रज़्म-गाह-ए-दहर में जीना ही है मुझ को
तो फिर इन यूरिशों में ज़िंदा रहने का हुनर देना

सिवा हो जाए जिस से अज़्मत-ए-दीदा-वरी 'गौहर'
नज़र देना तो यारब फिर मुझे ऐसी नज़र देना