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"दर्शन / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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वह चंद्रहीन थी एक रात,
 
वह चंद्रहीन थी एक रात,
 
 
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ
 
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ
 
 
उजले-उजले तारक झलमल,
 
उजले-उजले तारक झलमल,
 
 
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,
 
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,
 
  
 
धारा बह जाती बिंब अटल,
 
धारा बह जाती बिंब अटल,
 
 
खुलता था धीरे पवन-पटल
 
खुलता था धीरे पवन-पटल
 
 
चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत
 
चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत
 
 
सुनती जैसे कुछ निजी बात।
 
सुनती जैसे कुछ निजी बात।
 
  
 
धूमिल छायायें रहीं घूम,
 
धूमिल छायायें रहीं घूम,
 
 
लहरी पैरों को रही चूम,
 
लहरी पैरों को रही चूम,
 
 
"माँ तू चल आयी दूर इधर,
 
"माँ तू चल आयी दूर इधर,
 
 
सन्ध्या कब की चल गयी उधर,
 
सन्ध्या कब की चल गयी उधर,
 
  
 
इस निर्जन में अब कया सुंदर-
 
इस निर्जन में अब कया सुंदर-
 
 
तू देख रही, माँ बस चल घर
 
तू देख रही, माँ बस चल घर
 
 
उसमें से उठता गंध-धूम"
 
उसमें से उठता गंध-धूम"
 
 
श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।
 
श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।
 
  
 
"माँ क्यों तू है इतनी उदास,
 
"माँ क्यों तू है इतनी उदास,
 
 
क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,
 
क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,
 
 
तू कई दिनों से यों चुप रह,
 
तू कई दिनों से यों चुप रह,
 
 
क्या सोच रही? कुछ तो कह,
 
क्या सोच रही? कुछ तो कह,
 
  
 
यह कैसा तेरा दुख-दुसह,
 
यह कैसा तेरा दुख-दुसह,
 
 
जो बाहर-भीतर देता दह,
 
जो बाहर-भीतर देता दह,
 
 
लेती ढीली सी भरी साँस,
 
लेती ढीली सी भरी साँस,
 
 
जैसी होती जाती हताश।"
 
जैसी होती जाती हताश।"
 
  
 
वह बोली "नील गगन अपार,
 
वह बोली "नील गगन अपार,
 
 
जिसमें अवनत घन सजल भार,
 
जिसमें अवनत घन सजल भार,
 
 
आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल
 
आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल
 
 
शिशु सा आता कर खेल अनिल,
 
शिशु सा आता कर खेल अनिल,
 
  
 
फिर झलमल सुंदर तारक दल,
 
फिर झलमल सुंदर तारक दल,
 
 
नभ रजनी के जुगुनू अविरल,
 
नभ रजनी के जुगुनू अविरल,
 
 
यह विश्व अरे कितना उदार,
 
यह विश्व अरे कितना उदार,
 
 
मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।
 
मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।
 
  
 
यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,
 
यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,
 
 
संसृति के कल्पित हर्ष शोक,
 
संसृति के कल्पित हर्ष शोक,
 
 
भावादधि से किरनों के मग,
 
भावादधि से किरनों के मग,
 
 
स्वाती कन से बन भरते जग,
 
स्वाती कन से बन भरते जग,
 
  
 
उत्थान-पतनमय सतत सजग,
 
उत्थान-पतनमय सतत सजग,
 
 
झरने झरते आलिगित नग,
 
झरने झरते आलिगित नग,
 
 
उलझन मीठी रोक टोक,
 
उलझन मीठी रोक टोक,
 
 
यह सब उसकी है नोंक झोंक।
 
यह सब उसकी है नोंक झोंक।
 
  
 
जग, जगता आँखे किये लाल,
 
जग, जगता आँखे किये लाल,
 
 
सोता ओढे तम-नींद-जाल,
 
सोता ओढे तम-नींद-जाल,
 
 
सुरधनु सा अपना रंग बदल,
 
सुरधनु सा अपना रंग बदल,
 
 
मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,
 
मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,
 
  
 
अपनी सुषमा में यह झलमल,
 
अपनी सुषमा में यह झलमल,
 
 
इस पर खिलता झरता उडुदल,
 
इस पर खिलता झरता उडुदल,
 
 
अवकाश-सरोवर का मराल,
 
अवकाश-सरोवर का मराल,
 
 
कितना सुंदर कितना विशाल
 
कितना सुंदर कितना विशाल
 
  
 
इसके स्तर-स्तर में मौन शांति,
 
इसके स्तर-स्तर में मौन शांति,
 
 
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति,
 
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति,
 
 
परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल,
 
परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल,
 
 
मुस्क्याते इसमें भाव सकल,
 
मुस्क्याते इसमें भाव सकल,
 
  
 
हँसता है इसमें कोलाहल,
 
हँसता है इसमें कोलाहल,
 
 
उल्लास भरा सा अंतस्तल,
 
उल्लास भरा सा अंतस्तल,
 
 
मेरा निवास अति-मधुर-काँति,
 
मेरा निवास अति-मधुर-काँति,
 
 
यह एक नीड है सुखद शांति
 
यह एक नीड है सुखद शांति
 
  
 
"अबे फिर क्यों इतना विराग,
 
"अबे फिर क्यों इतना विराग,
 
 
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?"
 
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?"
 
 
पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,
 
पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,
 
 
वह इडा मलिन छवि की रेखा,
 
वह इडा मलिन छवि की रेखा,
 
 
  
 
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,
 
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,
 
 
जिस पर विषाद की विष-रेखा,
 
जिस पर विषाद की विष-रेखा,
 
 
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,
 
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,
 
 
सोया जिसका है भाग्य, जाग।
 
सोया जिसका है भाग्य, जाग।
 
  
 
बोली "तुमसे कैसी विरक्ति,
 
बोली "तुमसे कैसी विरक्ति,
 
 
तुम जीवन की अंधानुरक्ति,
 
तुम जीवन की अंधानुरक्ति,
 
 
मुझसे बिछुडे को अवलंबन,
 
मुझसे बिछुडे को अवलंबन,
 
 
देकर, तुमने रक्खा जीवन,
 
देकर, तुमने रक्खा जीवन,
 
  
 
तुम आशामयि चिर आकर्षण,
 
तुम आशामयि चिर आकर्षण,
 
 
तुम मादकता की अवनत धन,
 
तुम मादकता की अवनत धन,
 
 
मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति,
 
मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति,
 
 
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति
 
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति
 
  
 
मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,
 
मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,
 
 
यह हृदय अरे दो मधुर बोल,
 
यह हृदय अरे दो मधुर बोल,
 
 
मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,
 
मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,
 
 
मैं पाती हूँ खो देती हूँ,
 
मैं पाती हूँ खो देती हूँ,
 
  
 
इससे ले उसको देती हूँ,
 
इससे ले उसको देती हूँ,
 
 
मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,
 
मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,
 
 
अनुराग भरी हूँ मधुर घोल,
 
अनुराग भरी हूँ मधुर घोल,
 
 
चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।
 
चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।
 
  
 
यह प्रभापूर्ण तव मुख निहार,
 
यह प्रभापूर्ण तव मुख निहार,
 
 
मनु हत-चेतन थे एक बार,
 
मनु हत-चेतन थे एक बार,
 
 
नारी माया-ममता का बल,
 
नारी माया-ममता का बल,
 
 
वह शक्तिमयी छाया शीतल,
 
वह शक्तिमयी छाया शीतल,
 
  
 
फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल,
 
फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल,
 
 
जिससे यह धन्य बने भूतल,
 
जिससे यह धन्य बने भूतल,
 
 
'तुम क्षमा करोगी' यह विचार
 
'तुम क्षमा करोगी' यह विचार
 
 
मैं छोडूँ कैसे साधिकार।"
 
मैं छोडूँ कैसे साधिकार।"
 
  
 
"अब मैं रह सकती नहीं मौन,
 
"अब मैं रह सकती नहीं मौन,
 
 
अपराधी किंतु यहाँ न कौन?
 
अपराधी किंतु यहाँ न कौन?
 
 
सुख-दुख जीवन में सब सहते,
 
सुख-दुख जीवन में सब सहते,
 
 
पर केव सुख अपना कहते,
 
पर केव सुख अपना कहते,
 
  
 
अधिकार न सीमा में रहते।
 
अधिकार न सीमा में रहते।
 
 
पावस-निर्झर-से वे बहते,
 
पावस-निर्झर-से वे बहते,
 
 
रोके फिर उनको भला कौन?
 
रोके फिर उनको भला कौन?
 
 
सब को वे कहते-शत्रु हो न"
 
सब को वे कहते-शत्रु हो न"
 
  
 
अग्रसर हो रही यहाँ फूट,
 
अग्रसर हो रही यहाँ फूट,
 
 
सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,
 
सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,
 
 
श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें,
 
श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें,
 
 
अपने बल का है गर्व उन्हें,
 
अपने बल का है गर्व उन्हें,
 
  
 
नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें,
 
नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें,
 
 
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें,
 
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें,
 
 
सब पिये मत्त लालसा घूँट,
 
सब पिये मत्त लालसा घूँट,
 
 
मेरा साहस अब गया छूट।
 
मेरा साहस अब गया छूट।
 
  
 
मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध,
 
मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध,
 
 
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध,
 
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध,
 
 
मेरे सुविभाजन हुए विषम,
 
मेरे सुविभाजन हुए विषम,
 
 
टूटते, नित्य बन रहे नियम
 
टूटते, नित्य बन रहे नियम
 
  
 
नाना केंद्रों में जलधर-सम,
 
नाना केंद्रों में जलधर-सम,
 
 
घिर हट, बरसे ये उपलोपम
 
घिर हट, बरसे ये उपलोपम
 
 
यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,
 
यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,
 
 
आहुति बस चाह रही समृद्ध।
 
आहुति बस चाह रही समृद्ध।
 
  
 
तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,
 
तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,
 
 
संहार-बध्य असहाय दांत,
 
संहार-बध्य असहाय दांत,
 
 
प्राणी विनाश-मुख में अविरल,
 
प्राणी विनाश-मुख में अविरल,
 
 
चुपचाप चले होकर निर्बल
 
चुपचाप चले होकर निर्बल
 
  
 
संघर्ष कर्म का मिथ्या बल,
 
संघर्ष कर्म का मिथ्या बल,
 
 
ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल,
 
ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल,
 
 
भय की उपासना प्रणाति भ्रांत
 
भय की उपासना प्रणाति भ्रांत
 
 
अनिशासन की छाया अशांत
 
अनिशासन की छाया अशांत
 
  
 
तिस पर मैंने छीना सुहाग,
 
तिस पर मैंने छीना सुहाग,
 
 
हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग,
 
हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग,
 
 
मैम आज अकिंचन पाती हूँ,
 
मैम आज अकिंचन पाती हूँ,
 
 
अपने को नहीं सुहाती हूँ,
 
अपने को नहीं सुहाती हूँ,
 
  
 
मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ,
 
मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ,
 
 
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,
 
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,
 
 
दो क्षमा, न दो अपना विराग,
 
दो क्षमा, न दो अपना विराग,
 
 
सोयी चेतनता उठे जाग।"
 
सोयी चेतनता उठे जाग।"
 
  
 
"है रुद्र-रोष अब तक अशांत"
 
"है रुद्र-रोष अब तक अशांत"
 
 
श्रद्धा बोली, " बन विषम ध्वांत
 
श्रद्धा बोली, " बन विषम ध्वांत
 
 
सिर चढी रही पाया न हृदय
 
सिर चढी रही पाया न हृदय
 
 
तू विकल कर रही है अभिनय,
 
तू विकल कर रही है अभिनय,
 
  
 
अपनापन चेतन का सुखमय
 
अपनापन चेतन का सुखमय
 
 
खो गया, नहीं आलोक उदय,
 
खो गया, नहीं आलोक उदय,
 
 
सब अपने पथ पर चलें श्रांत,
 
सब अपने पथ पर चलें श्रांत,
 
 
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।
 
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।
 
  
 
जीवन धारा सुंदर प्रवाह,
 
जीवन धारा सुंदर प्रवाह,
 
 
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,
 
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,
 
 
ओ तर्कमयी तू गिने लहर,
 
ओ तर्कमयी तू गिने लहर,
 
 
प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,
 
प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,
 
  
 
तू रुक-रुक देखे आठ पहर,
 
तू रुक-रुक देखे आठ पहर,
 
 
वह जडता की स्थिति, भूल न कर,
 
वह जडता की स्थिति, भूल न कर,
 
 
सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,
 
सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,
 
 
तू ने छोडी यह सरल राह।
 
तू ने छोडी यह सरल राह।
 
  
 
चेतनता का भौतिक विभाग-
 
चेतनता का भौतिक विभाग-
 
 
कर, जग को बाँट दिया विराग,
 
कर, जग को बाँट दिया विराग,
 
 
चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत,
 
चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत,
 
 
वह रूप बदलता है शत-शत,
 
वह रूप बदलता है शत-शत,
 
  
 
कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत
 
कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत
 
 
उल्लासपूर्ण आनंद सतत
 
उल्लासपूर्ण आनंद सतत
 
 
तल्लीन-पूर्ण है एक राग,
 
तल्लीन-पूर्ण है एक राग,
 
 
झंकृत है केवल 'जाग जाग'
 
झंकृत है केवल 'जाग जाग'
 
  
 
मैं लोक-अग्नि में तप नितांत,
 
मैं लोक-अग्नि में तप नितांत,
 
 
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत,
 
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत,
 
 
तू क्षमा न कर कुछ चाह रही,
 
तू क्षमा न कर कुछ चाह रही,
 
 
जलती छाती की दाह रही,
 
जलती छाती की दाह रही,
 
  
 
तू ले ले जो निधि पास रही,
 
तू ले ले जो निधि पास रही,
 
 
मुझको बस अपनी राह रही,
 
मुझको बस अपनी राह रही,
 
 
रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,
 
रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,
 
 
विनिमय कर दे कर कर्म कांत।
 
विनिमय कर दे कर कर्म कांत।
 
  
 
तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,
 
तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,
 
 
शासक बन फैलाओ न भीती,
 
शासक बन फैलाओ न भीती,
 
 
मैं अपने मनु को खोज चली,
 
मैं अपने मनु को खोज चली,
 
 
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
 
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
 
  
 
वह भोला इतना नहीं छली
 
वह भोला इतना नहीं छली
 
 
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली,
 
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली,
 
 
तब देखूँ कैसी चली रीति,
 
तब देखूँ कैसी चली रीति,
 
 
मानव तेरी हो सुयश गीति।"
 
मानव तेरी हो सुयश गीति।"
 
  
 
बोला बालक " ममता न तोड,
 
बोला बालक " ममता न तोड,
 
 
जननी मुझसे मुँह यों न मोड,
 
जननी मुझसे मुँह यों न मोड,
 
 
तेरी आज्ञा का कर पालन,
 
तेरी आज्ञा का कर पालन,
 
 
वह स्नेह सदा करता लालन।
 
वह स्नेह सदा करता लालन।
 
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''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''
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22:33, 9 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण

वह चंद्रहीन थी एक रात,
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ
उजले-उजले तारक झलमल,
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,

धारा बह जाती बिंब अटल,
खुलता था धीरे पवन-पटल
चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत
सुनती जैसे कुछ निजी बात।

धूमिल छायायें रहीं घूम,
लहरी पैरों को रही चूम,
"माँ तू चल आयी दूर इधर,
सन्ध्या कब की चल गयी उधर,

इस निर्जन में अब कया सुंदर-
तू देख रही, माँ बस चल घर
उसमें से उठता गंध-धूम"
श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।

"माँ क्यों तू है इतनी उदास,
क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,
तू कई दिनों से यों चुप रह,
क्या सोच रही? कुछ तो कह,

यह कैसा तेरा दुख-दुसह,
जो बाहर-भीतर देता दह,
लेती ढीली सी भरी साँस,
जैसी होती जाती हताश।"

वह बोली "नील गगन अपार,
जिसमें अवनत घन सजल भार,
आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल
शिशु सा आता कर खेल अनिल,

फिर झलमल सुंदर तारक दल,
नभ रजनी के जुगुनू अविरल,
यह विश्व अरे कितना उदार,
मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।

यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,
संसृति के कल्पित हर्ष शोक,
भावादधि से किरनों के मग,
स्वाती कन से बन भरते जग,

उत्थान-पतनमय सतत सजग,
झरने झरते आलिगित नग,
उलझन मीठी रोक टोक,
यह सब उसकी है नोंक झोंक।

जग, जगता आँखे किये लाल,
सोता ओढे तम-नींद-जाल,
सुरधनु सा अपना रंग बदल,
मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,

अपनी सुषमा में यह झलमल,
इस पर खिलता झरता उडुदल,
अवकाश-सरोवर का मराल,
कितना सुंदर कितना विशाल

इसके स्तर-स्तर में मौन शांति,
शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति,
परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल,
मुस्क्याते इसमें भाव सकल,

हँसता है इसमें कोलाहल,
उल्लास भरा सा अंतस्तल,
मेरा निवास अति-मधुर-काँति,
यह एक नीड है सुखद शांति

"अबे फिर क्यों इतना विराग,
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?"
पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,
वह इडा मलिन छवि की रेखा,

ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,
जिस पर विषाद की विष-रेखा,
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,
सोया जिसका है भाग्य, जाग।

बोली "तुमसे कैसी विरक्ति,
तुम जीवन की अंधानुरक्ति,
मुझसे बिछुडे को अवलंबन,
देकर, तुमने रक्खा जीवन,

तुम आशामयि चिर आकर्षण,
तुम मादकता की अवनत धन,
मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति,
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति

मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,
यह हृदय अरे दो मधुर बोल,
मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,
मैं पाती हूँ खो देती हूँ,

इससे ले उसको देती हूँ,
मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,
अनुराग भरी हूँ मधुर घोल,
चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।

यह प्रभापूर्ण तव मुख निहार,
मनु हत-चेतन थे एक बार,
नारी माया-ममता का बल,
वह शक्तिमयी छाया शीतल,

फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल,
जिससे यह धन्य बने भूतल,
'तुम क्षमा करोगी' यह विचार
मैं छोडूँ कैसे साधिकार।"

"अब मैं रह सकती नहीं मौन,
अपराधी किंतु यहाँ न कौन?
सुख-दुख जीवन में सब सहते,
पर केव सुख अपना कहते,

अधिकार न सीमा में रहते।
पावस-निर्झर-से वे बहते,
रोके फिर उनको भला कौन?
सब को वे कहते-शत्रु हो न"

अग्रसर हो रही यहाँ फूट,
सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,
श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें,
अपने बल का है गर्व उन्हें,

नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें,
विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें,
सब पिये मत्त लालसा घूँट,
मेरा साहस अब गया छूट।

मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध,
अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध,
मेरे सुविभाजन हुए विषम,
टूटते, नित्य बन रहे नियम

नाना केंद्रों में जलधर-सम,
घिर हट, बरसे ये उपलोपम
यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,
आहुति बस चाह रही समृद्ध।

तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,
संहार-बध्य असहाय दांत,
प्राणी विनाश-मुख में अविरल,
चुपचाप चले होकर निर्बल

संघर्ष कर्म का मिथ्या बल,
ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल,
भय की उपासना प्रणाति भ्रांत
अनिशासन की छाया अशांत

तिस पर मैंने छीना सुहाग,
हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग,
मैम आज अकिंचन पाती हूँ,
अपने को नहीं सुहाती हूँ,

मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,
दो क्षमा, न दो अपना विराग,
सोयी चेतनता उठे जाग।"

"है रुद्र-रोष अब तक अशांत"
श्रद्धा बोली, " बन विषम ध्वांत
सिर चढी रही पाया न हृदय
तू विकल कर रही है अभिनय,

अपनापन चेतन का सुखमय
खो गया, नहीं आलोक उदय,
सब अपने पथ पर चलें श्रांत,
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।

जीवन धारा सुंदर प्रवाह,
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,
ओ तर्कमयी तू गिने लहर,
प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,

तू रुक-रुक देखे आठ पहर,
वह जडता की स्थिति, भूल न कर,
सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,
तू ने छोडी यह सरल राह।

चेतनता का भौतिक विभाग-
कर, जग को बाँट दिया विराग,
चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत,
वह रूप बदलता है शत-शत,

कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत
उल्लासपूर्ण आनंद सतत
तल्लीन-पूर्ण है एक राग,
झंकृत है केवल 'जाग जाग'

मैं लोक-अग्नि में तप नितांत,
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत,
तू क्षमा न कर कुछ चाह रही,
जलती छाती की दाह रही,

तू ले ले जो निधि पास रही,
मुझको बस अपनी राह रही,
रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,
विनिमय कर दे कर कर्म कांत।

तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,
शासक बन फैलाओ न भीती,
मैं अपने मनु को खोज चली,
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,

वह भोला इतना नहीं छली
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली,
तब देखूँ कैसी चली रीति,
मानव तेरी हो सुयश गीति।"

बोला बालक " ममता न तोड,
जननी मुझसे मुँह यों न मोड,
तेरी आज्ञा का कर पालन,
वह स्नेह सदा करता लालन।