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धर्मान्ध, टुच्चे, झूठे और कुपढ़ | धर्मान्ध, टुच्चे, झूठे और कुपढ़ | ||
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मैं घण्टों कुर्सी पर बैठा रहता हूँ अकेला | मैं घण्टों कुर्सी पर बैठा रहता हूँ अकेला | ||
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" गोली मारो सालों को ...' | " गोली मारो सालों को ...' | ||
का नारा देते हुए गुज़र रहे हैं गली से | का नारा देते हुए गुज़र रहे हैं गली से | ||
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पता नहीं क्या हो रहा है इन दिनों | पता नहीं क्या हो रहा है इन दिनों | ||
मोहन का कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे वे | मोहन का कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे वे |
21:35, 29 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
कुछ का कुछ हो रहा है इन दिनों
बाहर सड़क पर निकलने की सोचता हूँ
पर मजबूर करके ठेल दिया जाता हूँ
हुड़दंगियों के धार्मिक जुलूस में
सपने में ग्यारह महीने की एक लड़की की
आग से झुलसी लाश देखता हूँ
और नींद से जाग जाता हूँ
फिर रात भर आँख नहीं लगती
कभी दाँत मिसमिसाता आंशिक तोतला
ग़ुस्सेल दढ़ियल एक मन्त्री
सपने में आकर धमकाता है —
मेरे उल्लेखित कथन से कैसे हटाए तुमने
दो अल्पविराम
मैं तुम्हें छोड़ूँगा नहीं !
किवाड़ की झिरी से
एक परचा सरका जाता है कोई
कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करो !
सोच में पड़ जाता हूँ
कि क्यों वह आदमी भीड़ के हाथों
मारा गया चलती सड़क पर
संरक्षित पशु का मांस रखने के सन्देह में
उसका उत्तर मुझे भीड़ से ही मिलता है
कि अब आपका मरना या ज़िन्दा रहना
धर्मान्ध, टुच्चे, झूठे और कुपढ़
कुछ इच्छाचारियों की इच्छा पर निर्भर है
कुछ का कुछ हो रहा है इन दिनों
मैं घण्टों कुर्सी पर बैठा रहता हूँ अकेला
बैठे-बैठे ही आँख लग लाती है
हुँकारती हिंसक भीड़ की आवाज़ें सुनता हूँ
सुनता क्या हूँ कि
वे फिर किसी को मारने जा रहे हैं
हथियार लहराते उन्मादी जयकारा करते
" गोली मारो सालों को ...'
का नारा देते हुए गुज़र रहे हैं गली से
पता नहीं क्या हो रहा है इन दिनों
मोहन का कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे वे
क्योंकि वह
लम्बा तिलक लगाकर कार्यालय जाता है
मुझे डर है कि वे मुझसे
मेरी नागरिकता का हिसाब माँगेंगे
जात देखकर थोड़ा नरम पड़ सकते हैं
पर बाल बच्चेदार होने का डर ज़रूर दिखाएँगे
वही डरावना क़िस्सा फिर सुनाएँगे कि कैसे
एक कवि की दाँए हाथ की पाँचों उंगलियों पर
उन्होंने सरेआम चाकू फेर दिया था
वे फिर पूछेंगे —
"तुलसीदास के सामने तुम्हारी औकात क्या है" ?
कविता की पाँच सौ साल पुरानी
काव्य-यात्रा को समझे बगैर
वे देंगे मेरे कवि होने को चुनौती ।