भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मौसम की रग-रग दुख रही है / श्याम सखा ’श्याम’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्याम सखा ’श्याम’ }} <Poem> मौसम की रग-रग दुख रही है अ...)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=श्याम सखा ’श्याम’
+
|रचनाकार=श्याम सखा 'श्याम'
 
}}  
 
}}  
 
<Poem>
 
<Poem>

05:09, 10 अक्टूबर 2008 के समय का अवतरण

मौसम की रग-रग दुख रही है
अपनी ये धरती सूख रही है
       पेड़ों से टूट गया है
       धरती का नाता
       झिंगुर भी चौमासे
        का गीत नहीं गाता
बरखा रानी भी रूठ गई है
       जबसे बादल ने है
       अपना मुख मोड़ लिया
       निर्झर ने भी है
       नित झरना छोड़ दिया
मोर-पपीहे की वाणी देखो
देखो तो कैसी मूक हुई है
        हरियाली का दामन
        है झीना-झीना सा
        पुरवाई का आँचल
        भी छीना-छीना सा
मानवता खुद क्यों अपनी अगली
पीढ़ी को ही यूँ लूट रही है