भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दुपहरिया / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatNavgeet}}
 
{{KKCatNavgeet}}
 
<poem>
 
<poem>
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
+
झरने लगे नीम के पत्ते  
::उड़ने लगी बुझे खेतों से
+
बढ़ने लगी उदासी मन की,
::झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
+
 
::धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
+
    उड़ने लगी बुझे खेतों से
::सुधियों की चादर अनबीनी,  
+
    झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
+
    धूसर धूप हुई मन पर ज्यों
::साँस रोक कर खड़े हो गए
+
    सुधियों की चादर अनबीनी,  
::लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
+
 
::चिलबिल की नंगी बाँहों में
+
दिन के इस सुनसान पहर में  
::भरने लगा एक खोयापन,
+
रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।
+
 
::थक कर ठहर गई दुपहरिया,  
+
    साँस रोक कर खड़े हो गए
::रुक कर सहम गई चौबाई,
+
    लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
::आँखों के इस वीराने में-
+
    चिलबिल की नंगी बाँहों में
::और चमकने लगी रुखाई,
+
    भरने लगा एक खोयापन,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।
+
 
 +
बड़ी हो गई कटु कानों को  
 +
'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।
 +
 
 +
    थक कर ठहर गई दुपहरिया,  
 +
    रुक कर सहम गई चौबाई,
 +
    आँखों के इस वीराने में
 +
    और चमकने लगी रुखाई,
 +
 
 +
प्रान, आ गए दर्दीले दिन,  
 +
बीत गईं रातें ठिठुरन की ।
 
</poem>
 
</poem>

19:55, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

झरने लगे नीम के पत्ते
बढ़ने लगी उदासी मन की,

     उड़ने लगी बुझे खेतों से
     झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
     धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —
     सुधियों की चादर अनबीनी,

दिन के इस सुनसान पहर में
रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।

     साँस रोक कर खड़े हो गए
     लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
     चिलबिल की नंगी बाँहों में
     भरने लगा एक खोयापन,

बड़ी हो गई कटु कानों को
'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।

     थक कर ठहर गई दुपहरिया,
     रुक कर सहम गई चौबाई,
     आँखों के इस वीराने में —
     और चमकने लगी रुखाई,

प्रान, आ गए दर्दीले दिन,
बीत गईं रातें ठिठुरन की ।