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"दुपहरिया / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
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− | बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की । | + | |
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+ | प्रान, आ गए दर्दीले दिन, | ||
+ | बीत गईं रातें ठिठुरन की । | ||
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19:55, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
झरने लगे नीम के पत्ते
बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में
रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को
'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।
थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में —
और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन,
बीत गईं रातें ठिठुरन की ।