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"मैं आबाद रहूँगा / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'" के अवतरणों में अंतर

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मैं आबाद रहूँगा  
 
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छंद-छंद में बोल रहा हूँ, गीत-गीत में डोल रहा हूँ  
 
छंद-छंद में बोल रहा हूँ, गीत-गीत में डोल रहा हूँ  
 
औरों के हित पर अपनापन अपने हाथों तोल रहा हूँ  
 
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पर भगवान नहीं हूँ  
 
पर भगवान नहीं हूँ  
  
 
बात-बात में बिक जाता हूँ, लहर-लहर पर टिक जाता हूँ  
 
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अपने मन की बात विश्व की डगर-डगर पर लिख जाता हूँ  
 
अपने मन की बात विश्व की डगर-डगर पर लिख जाता हूँ  
 
 
पर आसान नहीं हूँ  
 
पर आसान नहीं हूँ  
  
 
हृदय-सिंधु में बढ़ जाने दो – भाव लहर पर चढ़ जाने दो  
 
हृदय-सिंधु में बढ़ जाने दो – भाव लहर पर चढ़ जाने दो  
 
अपनी रानी के प्राणों का बन उन्माद रहूँगा  
 
अपनी रानी के प्राणों का बन उन्माद रहूँगा  
 
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मैं आबाद रहूँगा ।
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केवल ऊषा में मुस्काता – तम से घिर आँसू बरसाता  
 
केवल ऊषा में मुस्काता – तम से घिर आँसू बरसाता  
 
अपने वैभव के चरणों से जो दुनियाँ की धूल उड़ाता  
 
अपने वैभव के चरणों से जो दुनियाँ की धूल उड़ाता  
 
 
वह इंसान नहीं हूँ  
 
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उच्च शिखर से ढह जाता है – शीत-घाम सब सह जाता है  
 
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धरती की छाती पर केवल भार रूप जो रह जाता है  
 
धरती की छाती पर केवल भार रूप जो रह जाता है  
 
 
वह पाषाण नहीं हूँ  
 
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मुझे दर्द में पल जाने दो – मुझे गीत में ढल जाने दो  
 
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भू अम्बर निशि-दिन पल युग का बन आह्लाद रहूँगा!  
 
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मैं आबाद रहूँगा ।
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पीड़ा में जो मुस्काता है – वीणा में मधु बरसाता है  
 
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जिसको पी-पी कर जन-जन का जीवन मधुमय हो जाता है  
 
जिसको पी-पी कर जन-जन का जीवन मधुमय हो जाता है  
 
 
मैं वरदान वही हूँ  
 
मैं वरदान वही हूँ  
  
 
सत्य-शिखर सा उठा हुआ है – सुंदरता सा झुका हुआ है  
 
सत्य-शिखर सा उठा हुआ है – सुंदरता सा झुका हुआ है  
 
दुनियाँ के हित पर शिव जैसे भाव लिये जो रुका हुआ है  
 
दुनियाँ के हित पर शिव जैसे भाव लिये जो रुका हुआ है  
 
 
मैं अभिमान वही हूँ  
 
मैं अभिमान वही हूँ  
  
 
अरमानों को जल जाने दो – पाषाणों को गल जाने दो  
 
अरमानों को जल जाने दो – पाषाणों को गल जाने दो  
 
अपनी वाणी के पलने का बन प्रासाद रहूँगा।  
 
अपनी वाणी के पलने का बन प्रासाद रहूँगा।  
 
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मैं आबाद रहूँगा ।
मैं आबाद रहूँगा।
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19:57, 15 अक्टूबर 2021 के समय का अवतरण

मैं आबाद रहूँगा
छंद-छंद में बोल रहा हूँ, गीत-गीत में डोल रहा हूँ
औरों के हित पर अपनापन अपने हाथों तोल रहा हूँ
पर भगवान नहीं हूँ

बात-बात में बिक जाता हूँ, लहर-लहर पर टिक जाता हूँ
अपने मन की बात विश्व की डगर-डगर पर लिख जाता हूँ
पर आसान नहीं हूँ

हृदय-सिंधु में बढ़ जाने दो – भाव लहर पर चढ़ जाने दो
अपनी रानी के प्राणों का बन उन्माद रहूँगा
मैं आबाद रहूँगा ।

केवल ऊषा में मुस्काता – तम से घिर आँसू बरसाता
अपने वैभव के चरणों से जो दुनियाँ की धूल उड़ाता
वह इंसान नहीं हूँ

उच्च शिखर से ढह जाता है – शीत-घाम सब सह जाता है
धरती की छाती पर केवल भार रूप जो रह जाता है
वह पाषाण नहीं हूँ

मुझे दर्द में पल जाने दो – मुझे गीत में ढल जाने दो
भू अम्बर निशि-दिन पल युग का बन आह्लाद रहूँगा!
मैं आबाद रहूँगा ।

पीड़ा में जो मुस्काता है – वीणा में मधु बरसाता है
जिसको पी-पी कर जन-जन का जीवन मधुमय हो जाता है
मैं वरदान वही हूँ

सत्य-शिखर सा उठा हुआ है – सुंदरता सा झुका हुआ है
दुनियाँ के हित पर शिव जैसे भाव लिये जो रुका हुआ है
मैं अभिमान वही हूँ

अरमानों को जल जाने दो – पाषाणों को गल जाने दो
अपनी वाणी के पलने का बन प्रासाद रहूँगा।
मैं आबाद रहूँगा ।